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________________ २५० वंदित्तु सूत्र करना होगा। यह परिणाम ज्वलंत होगे तो पाप का बंध तीव्र नहीं होगा एवं कभी पाप प्रवृत्ति का पूर्णतया विराम भी संभवित है, इसलिए मुझे हताश होने की ज़रूरत नहीं है, परंतु प्राप्त सम्यग् दर्शन के परिणामों को टिकाने एवं अप्राप्त को पाने का सतत प्रयत्न करना ज़रूरी है।' अवतरणिका: सम्यग्दृष्टि जीव को अल्प कर्म बंध होता है यह बात सत्य है, फिर भी वह अल्प कर्मबंध भी मोक्षमार्ग में तो विघ्नकर्ता ही है। इसलिए उसका नाश श्रावक किस तरह से करता है, वह एक दृष्टांत द्वारा समझाते हुए कहते हैं : गाथा: तं पि हु सपडिक्कमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिप्पं उवसामेई, वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो ॥३७ ।। अन्वय सहित संस्कृत छाया : सुशिक्षितो वैद्य इव व्याधिं क्षिप्रम् उपशमयति। तदपि खलु सप्रतिक्रमणं, सपरितापं सोत्तरगुणं च ।।३७ ।। गाथार्थ : सुशिक्षित वैद्य जैसे व्याधि को (वमन, जुलाब, लांधन आदि से) शीघ्र ठीक कर देता है वैसे ही श्रावक प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप एवं उत्तरगुण के समान उपचारों द्वारा उन अल्प पापों का भी शीघ्र उपशम कर देता है। विशेषार्थ : तं पि हु सपडिक्कमणं सप्परिआवं सउत्तरगुणं च - उस अल्प पाप का भी प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप एवं उत्तरगुण रूप (उपचारों द्वारा शीघ्र उपशम करते श्रावक को अनिवार्य रूप से जो हिंसादि पाप करने पड़ते हैं, उनमें कभी काषायिक भाव भी मिल जाता है, जिससे श्रावक को अल्प कर्मों का बंध होता है। ये कर्मबंध श्रावक को शल्य की तरह चुभते हैं। उनको निकालने के लिए वे अरिहंत भगवंत द्वारा प्ररूपित प्रतिक्रमण क्रिया करते हैं।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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