SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमणगाथा - ३६ उसकी पाप प्रवृत्ति को शास्त्रों में 'तप्त लोह पदन्यास " तुल्य कहा है, अर्थात् शरीर का रागी जीव जहाँ तक संभव हो गर्म लोहे पर पैर नहीं रखता और यदि किसी संयोगवश उसको वहाँ पैर रखना भी पड़े तो भी कहीं जल न जाए, उसका वह पूरा ख्याल रखता है। उसी प्रकार, सम्यग्दृष्टि जीव भी जहाँ तक संभव हो वहाँ तक पाप नहीं करता । ऐसा होते हुए भी वह कर्म से परतंत्र है, विषयों की आसक्ति उसके लिए बाधक होती है और संसार में होने के कारण उसे अनिवार्य रूप से फर्ज निभाने के लिए भी अमुक कार्य करना पड़ता है; लेकिन ये कार्य करते हुए उसमें रागादि का अंश मिल न जाए उसके लिए और बाह्य से भी अधिक हिंसादि न हो जाए उसके लिए सम्यग्दृष्टि अत्यधिक सावधानी रखता है। अतः उसे ऐसी प्रवृत्ति से जिन पाप कर्मों का बंध होता है, वह तीव्र रसवाला एवं दीर्घ स्थिति वाला नहीं होता, परंतु अल्प रसवाला एवं अल्प स्थितिवाला होता है, एवं ऐसे पाप कर्म से उसके भव भ्रमण में वृद्धि नहीं होती। २४९ इससे समझ में आता है कि पाप कर्म दुर्गति की परंपरा का सर्जन करते ही हैं ऐसा ऐकांतिक नियम नहीं है। खुशी-खुशी किया हुआ थोड़ा भी पाप दीर्घ भव भ्रमण का कारण बनता है, जब कि दुःखद दिल से, मजबूरन किया हुआ बड़ा पाप भी, भव भ्रमण को नहीं बढ़ा सकता। बल्कि ऐसा जीव थोड़े समय में ही इन पापों का नाश करके मुक्ति सुख को प्राप्त कर सकता है। इससे निश्चित हुआ कि आलोचना, निन्दा एवं प्रतिक्रमण द्वारा श्रावक पाप का रस घटा सकता है एवं पापों के प्रति तिरस्कार भाव को प्रकट कर सकता है। इसलिए उसकी यह क्रिया, 'हस्तिस्नान' जैसी बेकार नहीं जाती, परंतु पाप के रस को घटाने में बड़े लाभ का कारण बनती है। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि, 'प्रतिक्रमण करके भी पाप प्रवृत्ति तो मुझे करनी ही पड़ती है । फिर भी अगर मैं चाहता हूँ कि मुझे तीव्र पापबंध न हो तो मुझे सम्यग् दर्शन का परिणाम ज्वलंत 2. अतोऽन्यदुत्तरास्वस्मात्पापे कर्मागसोऽपि हि । तप्तलोहपदन्यास - तुल्या वृत्तिः क्वचिद्यदि ।। - योगदृष्टिसमुच्चय ७० श्लो ऊपर की स्थिरादि चार दृष्टियों में वेद्यसवेद्य पद होने के कारण हिंसादि प्रवृत्ति होती ही नहीं और अगर कर्म के दोष से ऐसी प्रवृत्ति होती भी हो, तो वह तपे हुए तवे के उपर पैर रखने की क्रिया जैसी प्रवृत्ति होती है ।
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy