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________________ सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमणगाथा - ३७ ये क्रिया भी वे संमूर्च्छिम की तरह या पोपटपाठ की तरह बिना अर्थ समझे नहीं करते, परंतु क्रिया में आने वाले प्रत्येक शब्द में मन को स्थिर करके, उसके अर्थ की विचारणापूर्वक करते हैं। हृदय को उस अर्थ के भावों के साथ जोड़कर आत्म निरीक्षण करते हैं। किस संयोग में, किस प्रकार के भाव से पाप हुआ है, उसका स्मरण करते हैं एवं स्मृति में आए तमाम पापों का दुःखार्द्र हृदय से गुरु भगवंत के पास प्रायश्चित्त करते हैं। उस पाप का नाश करने के लिए गुरु भगवंत उन्हे पाप के अनुरूप जो विविध प्रकार के तप या कायोत्सर्गादि करने का विधान करते हैं उन तपादि प्रायश्चित्त को शास्त्रीय भाषा में उत्तरगुण कहते हैं । प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप और उत्तरगुण की क्रियाएँ 'श्रावक ये मेरे पाप का दंड है' ऐसा सोच कर, उस रीति से करते हैं कि जिसके द्वारा पाप के संस्कार नष्ट हो जाएँ ।' २५१ इसी बात को दृष्टांत से समझाते हैं। खिप्पं उवसामेई वाहि व्व सुसिक्खिओ विज्जो - सुशिक्षित वैद्य जिस प्रकार शीघ्रता से व्याधि को दूर कर देता है उस प्रकार .... शरीर को निरोगी रखने के लिए शास्त्रों का जिसने उचित रीति से अभ्यास किया हो उन्हें सुवैद्य कहते हैं। जैसे सुवैद्य वमन या विरेचन द्वारा, भूखा रखवाकर या औषध द्वारा रोगों का शीघ्र नाश करते हैं, वैसे ही थोड़े भी बंधे हुए कर्मों को श्रावक हृदय से पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त एवं प्रतिक्रमण करके नाश करते हैं। इससे यह निश्चित होता है कि पाप कर्मों का नाश करने के लिए प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप एवं उत्तरगुणों की साधना, ये तीनों ज़रूरी हैं क्योंकि ये तीनों इकट्ठे होकर पाप का नाश करते हैं। इस गाथा का उच्चारण करते हुए श्रावक सोचता है कि 'यदि हृदय-मंदिर में सम्यग्दर्शन रूप दीपक प्रकट हुआ हो तो चिंता नहीं, क्योंकि बंधे हुए थोड़े भी पापों को इस दीपक के माध्यम से मैं सम्यग् प्रकार से देख सकूँगा और उनसे मुक्त होने के लिए प्रयत्नरूप प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप एवं कायोत्सर्गरूप उत्तरगुणों का सेवन भी कर सकूँगा, परंतु यदि यह सम्यग्दर्शन गुण प्रकट नहीं हुआ हो तो पाप को यथार्थरूप से देख भी नहीं सकूँगा एवं पाप कर्मों को दूर करने के लिए सुविशुद्ध प्रयत्न भी नहीं कर सकूँगा । इस कारण से अब मुझे
SR No.006127
Book TitleSutra Samvedana Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages320
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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