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________________ ( १०१) एवां त्रण मुख्य अंगो होय छे, घणाखरा धर्मोमां विधिविधानस्वरूप जे कर्मकांड-तेनोज सर्व धर्मो उपर प्रचार थईने इतर अंगो गौणपणे थईने रहेलां होय छे, अने तेमनामां भावनोदीपक कथापुराणो अंग मात्र लोकप्रिय होय छे. बौद्धिक एटले तत्त्वज्ञान स्वरूपना अंगोनी अभिवृद्धि ए आर्य धर्मोना स्वरूपर्नु मुख्य लक्षण होय छे, पण ए त्रणे अंगोनी एकला जैनधर्ममांज सरखापणाथी वहेंचणी करेली होवाथी प्राचीन ब्राह्मणधर्म अने बौद्धधर्म एमां बौधिक अंगोनुं विना कारण मोटापणुं बतावेलु छे.' वीजा इतर धर्मना प्रमाणमां जैनधर्मने कयुं स्थान आपी शकाय एनो निश्चय करवा माटे हवे आपणे तेना अंतरंगनो थोडो अधिक विचार करीए. जैनधर्मनो संपूर्णपणे विचार करवो ए एक में नाना सरखा व्याख्यानमां थई शके नहीं अने तेवो प्रयत्न करवानो मारो उद्देश पण नथी. तेनो स्वरूप बधाओने ( आपणने) मालुम छे एवो विचार करीने हुं आगळ चालु छ. जगतमांना सर्वे धर्मोमां जैनधर्मने कयु स्थान आपी शकाय ए समजवा माटे अवश्य रहेली ते धर्ममांनी मुख्य मुख्य वातोनोज केवल उल्लेख करीने सर्वे धर्मोनी सरखामणीना विज्ञानमां जैनधर्मने ते बधा धर्मोथी विशेष महत्व केम प्राप्त थयुं छे तेज हुं बताववानो छु. Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.005250
Book TitleJainetar Drushtie Jain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarvijay
PublisherDahyabhai Dalpatbhai
Publication Year1923
Total Pages408
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size13 MB
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