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________________ 224 धार्मिक-वहीवट विचार प्रतिद्रव्य बदलती रहती है / वस्त्रादिको स्वनिश्राकृत करे (अर्थात् अपने अधिकारमें रख, उसकी देखभाल आदि करे) तो भी उसमें मूरिहितता संभवित होनेसे, उसका वैसा उपभोग बताया / सुवर्णादिमें उस प्रकार मूर्छारहितता अशक्यप्रायः होनेसे उसका स्वनि श्राकृतके रूपमें निषेध किया / शास्त्रोमें जिसकी जैसी व्यवस्था सूचित की हो उस प्रकार करनेसे कोई दोष नहीं लगता और विपरीत करनेमें दोष हो, ऐसा समझ लें / वस्त्रादिसे कोई पूजा कर दे तो उस वस्त्रादिको स्वयं अपने पास रखकर प्रतिलेखनादि करने चाहिए / गृहस्थोंको सौंप दे तो विराधना हो / सुवर्णादिसे कोई द्वारा पूजा की जाय तो उन्हें गृहस्थोंको सौंप देने चाहिए। उन्हें स्वनिश्राकृत न किये जायें, तभी विराधनासे बच सके / संघ द्वारा की गयी व्यवस्था अनुसार साधुकी वैयावच्च आदिमें उस सुवर्णादिका संघ उपयोग करे तो साधुको सुवर्णादि पर मूर्छा होनेका भय नहीं कि जिससे उसमें उसकी परिग्रह विरति दूषित होनेके कारण, साधु उसके अनधिकारी बन जानेका प्रश्न उपस्थित होगा / - उपरान्त, न्युंछणादिरुपसे साधु सन्मुख रखे सुवर्णादिका साधुवैयावच्चमें उपयोग करना शास्त्रमान्य है, ऐसा तो विरोधपक्ष भी स्वीकार करता है / तो क्या उस सुवर्णादिका उस प्रकारका उपभोग करने में परिग्रहविरतिको आपत्ति नहीं आती ? उसमें यदि नहीं आती तो इसमें क्यों आयेगी ? अर्धजरतीय न्याय किस लिये ? परमपवित्र जिनाज्ञासे विरुद्ध इस लेखमें जो कुछ लिखा गया हो, उसका त्रिविध त्रिविध रूपमें मिच्छामि दुक्कडम् / शुभं भवतु श्री श्रमणसंघस्य....
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
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