SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है कि गुरुकी अपेक्षा ऊँचे देवद्रव्यमें ही उसका समावेश हो' ऐसी दलील भी योग्य नहीं / क्योंकि भोगार्ह गुरुद्रव्यरूपमें उसका निषेध भी गुरुवैयावच्चमें उसके निषेध करनेके अभिप्रायसे नहीं, किन्तु गुरु रजोहरणादिको अपने पास रखकर जैसे उसके पडिलेहणादिकी देखभाल करता है और उस प्रकार उसे स्वनिश्राकृत करते हैं, उसी प्रकार सुवर्णादि द्रव्यको स्वनिश्राकृत करते नहीं, किन्तु श्रावक ही उस द्रव्यकी व्यवस्था आदि करता है / इस प्रकार स्वनिश्राकृत न होनेके कारण ही उसका भोगार्ह गुरुद्रव्यरूपमें निषेध है / / यह बात श्रीहीरप्रश्नोत्तर-श्री द्रव्यसप्ततिका आदि ग्रन्थाधिकारों परसे स्पष्ट है / उपरान्त, गुरुओंकी अपेक्षा श्रुतज्ञान ऊँचा क्षेत्र होनेसे उसमें भी उसका ग्रहण होनेसे 'केवल देवद्रव्यमें ही जाय' ऐसा तो लेशमात्र भी सिद्ध नहीं होता / इस प्रकार द्रव्यसप्ततिकाके आधार पर 'सुवर्णादि गुरुद्रव्य देवद्रव्यमें ही जाय' ऐसा सिद्ध नहीं होता / द्रव्यसप्ततिकामें तक्रकौडिन्यन्यायका जो उल्लेख है, उससे कई विद्वान ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि गुरुओंको परिग्रहसे कायमी विरति होनेसे स्वयंनिमित्त उत्पन्न सुवर्णादिके उपभोगके भी स्वयं अधिकारी नहीं / इन विद्वानोंसे पूछना है कि सर्वथा परिग्रहसे जो विरति है, वह द्रव्यपरिग्रहसे है या भावपरिग्रहसे ? शंका : साधुओंको, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, उन चारोंके आधार पर परिग्रहसे विरति है, यह पक्खी सूत्रमें प्रसिद्ध है / तो आप ऐसा प्रश्न क्यों करते हैं ? समाधान : अध्यात्ममतपरीक्षा ग्रन्थके प्रकाशमें यह बात स्पष्ट है कि इन चारोंके संदर्भमें भावपरिग्रहसे विरति है, ऐसा पक्खी सूत्र का अभिप्राय * है / द्रव्यनिक्षेपास्वरूप द्रव्यपरिग्रहसे भी यदि विरति माननी हो तो श्वेत वस्त्रादिके द्रव्य परिग्रहको छोडकर दिगंबर हो जाना होगा, क्योंकि सुवर्णादिककी तरह वस्त्रादि भी द्रव्य परिग्रहस्वरूप होनेसे साधुओंके लिए उसका उपभोग होना संभव न होगा, अतः भावपरिग्रहसे विरति मानना ही उचित होगा और वह तो 'मुर्छा परिग्गहो वुत्तो' उस वचनानुसार द्रव्यादि परकी मूर्छा स्वरूप है / इसीलिए जिस ढंगसे मूर्छा न हो, उस तरह जयणापूर्वक गुरुवैयावच्चादि उचित कार्योंके लिए श्रीसंघ द्वारा उस कनकादि द्रव्यका भी विनियोग करानेका अधिकार गीतार्थ संविग्न साधुको क्यों न हो ? मूर्छाकी अजनक यह पद्धति
SR No.004379
Book TitleDharmik Vahivat Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekharvijay
PublisherKamal Prakashan
Publication Year1996
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy