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________________ गर्भ में आये तो समूचे राज्य में धन-धान्य और वैभव की अभिवृद्धि होने लगी। इसीलिये उनका नाम वर्द्धमान रखा गया। इसके अलावा आगम ग्रन्थों में एक और अत्यन्त महत्वपूर्ण बात कही गई है कि कैवल्य/मोक्ष प्राप्ति जैसी दुर्धर्ष/उत्कृष्ट साधना वही व्यक्ति कर सकता है जिसके शरीर का संहनन वज्रऋषभ नाराच का हो। आत्म-कल्याण के लिए शारीरिक सामर्थ्य की शर्त, कायिक बल की बात, धर्म और अर्थ के शाश्वत सम्बन्ध का स्पष्ट निदर्शन है। लोक प्रचलित सूत्र 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' यहाँ पूरी तरह लागू होता है। जैन परम्परा में अर्थ-विचार बहुत ही गहन अर्थ लिये हुए है। वहाँ अर्थ है, अर्थ का विचार है, आचार है; परन्तु आसक्ति का सर्वत्र निषेध है। फलतः अर्थ के अधिकतम कल्याणमय उपयोग का विवेक वहाँ विद्यमान है। सम्यक्दर्शन की प्राप्ति दान से ___ जैन धर्म का आरम्भ सम्यग्दर्शन से होता है। सम्यग्दर्शन जीवात्मा के लिए अनन्त निशा के बाद की स्वर्णिम भोर है। इस चिर-प्रतीक्षित सुबह के साथ ही अध्यात्म-यात्रा की शुरूआत मानी जाती है। जैन परम्परानुसार तीर्थ के संस्थापक/ *, प्रवर्तक तीर्थंकर कहलाते हैं। आगमों में उनके पूर्व-जन्मों/भवों का उल्लेख/परिचय प्राप्त होता है। इन भवों की गणना सम्यक्-दर्शन प्राप्ति के उपरान्त की जाती है। इसमें यह बताया जाता है कि किस प्रकार जीवात्मा सामान्य परिस्थितियों में आत्मा की प्रतीति करता हुआ आत्म-विकास के सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित हो जाता है। इस महान यात्रा के आरम्भ के साथ कितने सन्दर्भ अर्थ से जुड़े हुए हैं; यह यहाँ बताया जा रहा है। बात प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के प्रथम भव से शुरू करते हैं। आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि, आवश्यक मलयगिरी वृत्ति, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र तथा कल्पसूत्र की टीकाओं में ऋषभदेव के तेरह भवों का उल्लेख है। प्रथम भव में उनका जीव अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धना सार्थवाह होता है।' धन्ना के पास विपुल धन वैभव था। देश-विदेश में उसका व्यावसायिक साम्राज्य फैला हुआ था। एक बार धन्ना को वसन्तपुर में व्यवसाय के लिए जाना था। सहयोग की भावना से सैकड़ों व्यक्तियों को उसने अपने साथ लिया। उधर जैनाचार्य धर्मघोष भी उनके शिष्य समुदाय के साथ धर्म प्रचारार्थ वसन्तपुर जाना चाहते थे। बीहड़ और भयानक मार्ग होने की वजह से वे विहार नहीं (36)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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