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________________ की इस व्यवस्था को आरम्भिक तौर पर जिन्होंने सम्भाला और नेतृत्व किया उन्हें 'कुलकर' कहा गया। कुल यानि समुदाय और कुलकर यानि समुदाय का प्रमुख। कुलकरों को मानव सभ्यता का सूत्रधार माना जाता है। उन्होंने प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के विधिपूर्वक व विवेकसम्मत उपयोग की कला सिखाई। मानव समाज को कृषि और औद्योगिक संस्था की ओर प्रवृत्त करने में कुलकरों की आरम्भिक भूमिका मानी जाती है। उन्हें ग्राम और नगर संस्कृति का जनक भी माना जाता हैं।' ___कुलकर चौदह हुए। विमलवाहन प्रथम और नाभि अन्तिम कुलकर थे। परन्तु महापुराण और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ऋषभ को पन्द्रहवें कुलकर की संज्ञा दी गई है। आचार्य जिनसेन के अनुसार नाभि ने आहार, भक्ष्याभक्ष्य विवेक और पात्रनिर्माण की कला सिखाई थी। कर्मभूमि के अनुरूप समाज निर्माण के क्रम में कुलकरों ने अनेक नई व्यवस्थाएँ दीं। हाकार, मकार और धिक्कार जैसी न्यायसंगत दण्ड-व्यवस्थाएँ भी उस समय शुरू हो चुकी थीं। तीर्थंकर की माँ के लक्ष्मी और रत्न-राशि के स्वप्न प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव नाभिराय के पुत्र थे। माता मरूदेवी की कुक्षी में जब ऋषभ का अवतरण हुआ, तब उनकी माता ने चौदह स्वप्न देखे। प्रत्येक तीर्थंकर की माता इन उत्तम स्वप्नों का दर्शन करती है। इन स्वप्नों के अन्तर्गत एक स्वप्न होता है - लक्ष्मी। लक्ष्मी समृद्धिदायिनी तथा धन की देवी मानी जाती है। लक्ष्मी का स्वप्न कुल में धन की वृद्ध का सूचक माना जाता है। इसके अलावा अन्य स्वप्नों में रत्न-राशि भी स्पष्टतः धन की प्रतीक है। गज और वृषभ भी सम्पत्ति के सूचक माने जाते रहे हैं। इस सम्बन्ध में एक दोहा प्रसिद्ध है - गजधन, गौधन, बाजधन और रतनधन खान। जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूलि समान। वर्तमान में दुपहिया, चौपहिया वाहन और अन्य यान्त्रिक वस्तुएँ सम्पत्ति की सूची में आ गई हैं। . स्वप्न प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अनेक बातें स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकर अहिंसा और अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर होते हैं। वे लोक में सर्वोत्तम तथा लोक त्रिलोक के स्वामी होते हैं। जिस कुल में उनका जन्म होता है, वह कुल सभी श्रेष्ठताओं से सम्पन्न होता है। वह आर्थिक और भौतिक दृष्टि से भी सम्पन्न होता है। तीर्थंकर के माता-पिता के तथा स्वयं तीर्थंकर के जीवन में किसी अभाव का कहीं कोई वर्णन नहीं प्राप्त होता है। अन्तिम तीर्थंकर महावीर तो जब माँ त्रिशला के (35)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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