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________________ कर पा रहे थे। उन्होंने धन्ना के यात्रा दल के साथ विहार की इच्छा व्यक्त की। आचार्य की इच्छा का सम्मान करते हुए धन्ना ने दल के सदस्यों को निर्देशित किया कि आचार्य और उनके शिष्यों का पूरा ध्यान रखा जायें। आचार्य ने धन्ना को श्रमणाचार और आहार सम्बन्धी नियमों से अवगत कराया। धन्ना श्रमण चर्या को ध्यान में रखते हुए मुनि-वृन्द की सेवा-भक्ति करता है। वर्षा ऋतु की वजह से मार्ग में सबको ठहरना पड़ा। सब अपनी-अपनी व्यवस्थाओं में लग गये। इस दौरान धन्ना भूलवश आचार्य और उनके शिष्यों का ध्यान नहीं रख पाया। वर्षाकाल की समाप्ति पर एकाएक उसे आचार्य का स्मरण हुआ। उसने भूल के लिए क्षमा याचना करके आचार्य से आहार के लिए अभ्यर्थना की। उत्कृष्ट भावों के साथ धन्ना ने आचार्य और उनके शिष्यों को घृत बहराया। परमोज्ज्वल भावों के साथ विधिपूर्वकं किये गये इस दान से धन्ना दुर्लभ सम्यक्त्व की प्राप्ति कर लेता है। अन्तिम तीर्थंकर महावीर के सम्यक्त्व प्राप्ति की घटना भी आहार दान से जुड़ी हुई है। ऐसी और अन्य घटनाएँ भी शास्त्रों में प्राप्त होती है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि धर्म अर्थ का हेतु है या अर्थ धर्म का? अर्थशास्त्र के आदि संस्थापक ऋषभदेव . अर्थ की स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता सापेक्ष है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख पूर्व थी। बीस लाख पूर्व तक वे कुमारावस्था में रहे तथा तिरेसठ लाख पूर्व तक उन्होंने राज्य का संचालन किया। कुल 83 लाख पूर्व तक वे गृहस्थ/सांसारिक जीवन में रहे। जीवन का लगभग 99 प्रतिशत भाग उन्होंने समाजनिर्माण, प्रजा-पालन तथा कर्म-युग को नई व्यवस्थाएँ देने में समर्पित किया। कला, लिपि और गणित का ज्ञान सर्वप्रथम उन्होंने कराया। भरत ने बहत्तर कलाओं की शिक्षा प्राप्त की, बाहुबलि ने प्राणी-लक्षण सीखे। आर्थिक साधनों के रूप में मान (माण), उन्मान (तोला, मासा आदि), अवमान (गज, फुट, इंच आदि) और प्रतिमान (छटांग, सेर, मन आदि) जैसी व्यपारिक कलाएँ भी शुरू हुई। ऋषभदेव आदिकालीन मानव सभ्यता के सूत्रधार थे। वे प्रथम राजा थे। उन्होंने राज-व्यवस्था की स्थापना की, नगर बसाया, मन्त्री-मण्डल बनाया और राज्य की सुरक्षा के लिए समुचित व्यवस्थाएँ कीं। वे प्रथम समाजशास्त्री थे। उन्होंने खेती-बाड़ी, पाकविद्या, पात्र निर्माण विद्या आदि की शिक्षाएँ दी तथा विवाह परम्परा के माध्यम से परिवार व्यवस्था की शुरूआत की। डॉ. जगदीश चन्द्र जैन के अनुसार प्राकृत में (37)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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