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________________ निर्वैरभाव सन्देश दे रहे थे। चण्डकौशिक नाग के उद्धार के माध्यम से उन्होंने मानव जाति को सन्देश दिया कि प्रकृति में प्रत्येक प्राणी की महत्ता और उपयोगिता है। इसलिए किसी भी प्राणी के प्राणों का न तो हरण करना चाहिये और न ही किसी प्राणी की स्वतन्त्रता में बाधक बनना चाहिये। चण्डकौशिक जैसा जहरीला प्राणी भी रूपान्तरित हो सकता है। मानव में तो रूपान्तरण और उच्चतम विकास की सारी सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। उनका साधना-काल प्रकृति और प्रकृति में निवास करने वाले प्राणियों तथा वनवासी बन्धुओं के साथ सह-अस्तित्वपूर्ण जीवन का जीवन्त उदाहरण है। कैवल्य के पश्चात् भगवान महावीर उद्यानों में ठहरते थे। अध्यात्म समाज-व्यवस्था का आधार था। हरे-भरे सघन वन और खिलते-महकते उपवन उस समय के वरदान थे। उस समय का मानव शुद्ध-स्वच्छ हवा में साँस लेता था और शुद्ध-स्वच्छ जल उसे उपलब्ध था। इन सब माध्यमों का वह व्यावसायिक उपयोग भी करता था। आज जल, जंगल और जमीन पर अधिकार के लिए आन्दोलन हो रहे हैं। उस समय ये साधन सबके लिए सहज उपलब्ध थे। श्रम और पूंजी परिश्रम किये बगैर कुछ भी पाना सम्भव नहीं है। अर्थोपार्जन और जीवन की समृद्धि के लिए मानव-श्रम का महत्व तब से लेकर आज तक बना हुआ है। पेट के लिए व्यक्ति अपना श्रम बेचता था। इससे दास-प्रथा पनप गई थी। भगवान महावीर का जीवन और आगमों के अनेक उदाहरण दास-प्रथा की खिलाफत करते हैं। वे मानव-श्रम को मानवीय गरिमा प्रदान करते हैं। शोषण-मुक्त व्यवस्था के निर्देश आगमों में जगह-जगह मिलते हैं। आचारांग में भगवान महावीर कहते हैं कि किसी को शासित नहीं करना चाहिये, किसी को परिताप नहीं देना चाहिये। वे मानव को बहुत ही गहराई से प्रतिबोधित करते हैं कि जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। उपासकदशांग और आवश्यक सूत्र में प्रथम अणुव्रत में निर्देश दिया गया है कि श्रावक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों समुचित देखभाल करें, उन्हें समय पर समुचित वेतन दें और उन पर उनकी क्षमता से अधिक कार्यभार नहीं डालें। पूंजी-निर्माण, पूंजी-अनुरक्षण और पूंजी-वृद्धि के लिए भगवान महावीर के श्रावक सचेष्ट थे। उपासकदशांग के आनन्द आदि श्रावकों की सम्पत्ति के वर्गीकरण से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय लेखांकन और अंकेक्षण की प्रणालियाँ विद्यमान थी। जिनके आधार पर व्यापारी अपने व्यवसाय (364)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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