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________________ अर्थ का उपार्जन कैसे करता है और उसका उपयोग कैसे करता है। आगम-ग्रन्थ हमें धन के सम्यक् उपार्जन और सम्यक् उपयोग की अनेक दृष्टियाँ और विधियाँ बताते हैं। धनोपार्जन करना सभी जानते हैं, परन्तु दूसरों के हितों को आहत किये बगैर धनोपार्जन कैसे करना, यह कला कम व्यक्ति जानते हैं। आगमिक दृष्टि दूसरों के हितों की रक्षा करने के साथ दूसरों के हितों में सहायक बनने की है। तत्वार्थ सूत्र का अमर वाक्य परस्परोपग्रहो जीवानाम् अहिंसा, समता और समृद्धि के अर्थशास्त्र का प्रेरक उद्घोष है। पारस्परिक सहयोग और पारस्परिक निर्भरता पर पूरा संसार गतिमान है। धनोपार्जन से अधिक कठिन है - धन का सम्यक् उपयोग करना। आगम-ग्रन्थ मनुष्य को वह सद्-विवेक भी प्रदान करते हैं कि धन का अधिकतम सदुपयोग और सद्व्यय कैसे किया जाय। भगवान महावीर के अनुयायियों ने धन के सम्यक् उपार्जन और सम्यक् उपयोग के अनेक उदाहरण समय-समय पर प्रस्तुत किये हैं। अर्थोपार्जन के साधन / शोध-प्रबन्ध के दूसरे अध्याय के तीसरे परिच्छेद में आगमों में वर्णित . अर्थोपार्जन के साधनों पर विचार किया गया है। आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने भूमि, श्रम, पूंजी और प्रबन्ध को अर्थोपार्जन के साधनों के रूप में बताया है। इन्हें आधार मानते हुए यह विवरण प्रस्तुत किया गया है कि आगम-ग्रन्थों में कहाँ क्या है। भूमि के अन्तर्गत वन-सम्पदा, खनिज-सम्पदा और जल-सम्पदा को लिया गया है। मूलतः धर्म-शास्त्र होने से इन ग्रन्थों में इन सम्पदाओं का अर्थशास्त्रीय विवेचन भले ही न हो, परन्तु जो विवरण मिलता है, उसके अर्थशास्त्रीय निष्कर्ष हमारे लिए बहुत उपयोगी है। भूमि, जल और वन प्रदूषण-मुक्त थे। वे सभी जीवों के प्राकृतिक आवास के लिए सर्वथा अनुकूल थे। इसलिए सभी जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों की सभी जातियाँ और प्रजातियाँ उस समय विद्यमान थीं। मनुष्य और मनुष्येत्तर प्राणियों के बीच एक सह-अस्तित्त्वपूर्ण जीवन शैली थी। प्रकृति से मानव का घनिष्ठ सम्बन्ध था।। . प्रकृति की सुरम्य गोद में तीर्थंकर, ऋषि-मुनि, योगी और अन्य साधक साधनाएँ करते थे। भगवान महावीर ने वनों में साढ़े बारह वर्षों तक कठोर साधनाएँ की। साधना काल में सम्पूर्ण प्रकृति से वे एकाकार हो गये थे। वे सम्पूर्ण प्रकृति से . मौन-संवाद करते थे। मैत्री उनके रोम-रोम में थी, इसलिए वे अभय थे और (363)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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