SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 394
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का लेखा-जोखा रखते और उसे जाँचते थे। जैन-सूत्रों से पूंजी-निर्माण के लिए बचत और निवेश की प्रेरणा तो मिलती है, परन्तु संग्रह की नहीं। श्रावकों की दिनचर्या और जीवन-चर्या से यह पता लगता है कि वे कुशल प्रबन्धक और दूरदर्शी योजक भी थे। एक ओर वे लम्बे-चौड़े व्यवसाय का संचालन करते थे, दूसरी ओर धर्म और समाज के लिए भी पर्याप्त समय का नियोजन करते थे। उचित प्रबन्धन के बिना ये व्यवस्थाएँ सम्भव नहीं थी। उस समय के सार्थवाह उत्तम व्यावसायिक प्रबन्धक और जिम्मेदार नेतृत्वकर्ता के रूप में समुदाय और देश को उल्लेखनीय सेवाएँ प्रदान कर रहे थे। भगवान महावीर का तीर्थ तो उत्कृष्ट प्रबन्ध का स्वरूप ही था। वह विनय, आत्मानुशासन, समता, सहिष्णुता, त्याग आदि नियमों व सद्गुणों पर आधारित था। उनके अनुयायी अपने व्यावसायिक प्रबन्धन में इन नियमों का अनुपालन करके उच्च आदर्शों की स्थापना कर रहे थे। मुद्रा और राजस्व / - आगम-युग में अर्थशास्त्र था तो अर्थशास्त्र को सुगमता से संचालित करने वाली वस्तु 'मुद्रा' भी थी। हिरण्य या सुवर्ण मुख्य सिक्के थे, जो स्वर्ण और रजत के होते थे। इनके अलावा निम्न प्रकार के सिक्के प्रचलित थे - 1. सुवर्ण-माष : उत्तराध्ययन में इसका उल्लेख मिलता है। यह सोने का होता था। 2. कार्षापण (काहावण) : बिम्बसार (श्रेणिक) के समय राजगृह में इसका प्रचलन था। यह स्वर्ण, रजत और ताम्र, तीनों धातुओं का होता था। 3. माषक (मास) और अर्ध-माषक (आधा मासा) : इनका उल्लेख सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में मिलता है। 4. रुवग (रुप्यक) : आवश्यक चूर्णि में यह शब्द आया है। वर्तमान में प्रचलित .. रुपया इसी शब्द से बना है। 5. पनिक (पण) : यह शब्द पण्य से बना है, जिसका अर्थ है - बिक्री योग्य ____ वस्तुएँ / व्यवहार भाष्य में इसका उल्लेख मिलता है। 6. काकिणि : यह ताम्बे का छोटा सिक्का होता था तथा दक्षिणापथ में प्रचलित ____ था। उत्तराध्ययन टीका में इसका उल्लेख मिलता है। इनके अलावा पायंकक, कवडुग (कौड़ी), द्रम, दीनार, केवडिग, सामरक आदि विभिन्न प्रकार की मुद्राओं के उल्लेख व्यवस्थित विनिमय प्रणाली और (365)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy