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________________ इसलिए एक के विनाश में सबका विनाश और एक के संरक्षण में सबका संरक्षण समाहित होता है। ध्वनि-प्रदूषण, वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण, भूमि-प्रदूषण जैसी समस्याएँ वर्तमान में हमारे सामने वीभत्स रूप में खड़ी हैं। इनके मूल में स्थावरकायिक जीवों की अन्धाधुन्ध हिंसा है। इन्हीं स्थावरकायिक जीवों के सहारे त्रस प्राणियों का जीवन निर्भर होता है। वायु, जल, वनस्पति आदि के प्रदूषित होने से इनके आसरे जीने वाले जीवों का जीवन संकट में पड़ गया। जल, वायु, भूमि, अन्य जीवित सूक्ष्म व स्थूल प्राणी, पेड़-पौधे और मानव का जब अन्तर्सम्बन्ध टूट जाता है तो पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। सूक्ष्म जीवों की रक्षा के लिए भगवान महावीर प्रत्येक कार्य-व्यापार में यतना और विवेक की हिदायत देते हैं।12 तस जीव आचारांग के प्रथम अध्ययन के छठे उद्देशक में संसार स्वरूप के विवेचन में त्रस जीवों का उल्लेख है। त्रस जीवों के चार भेद बताये हैं - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय जीवों में शरीर और रसना वाले लट, केंचुआ, कृमि, शंख आदि, त्रीन्द्रिय जीवों में शरीर, रसना और घ्राण वाले चिंटी, मकोड़े, दीमक, झिंगुर, आदि, चतुरिन्द्रिय में काया, जिह्वा, घ्राण और चक्षु वाले तितली, मक्खी, भ्रमर, बिच्छू आदि अनेक जीव आते हैं। उपरोक्त चार और पाँचवीं श्रवणेन्द्रिय वाले पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। ... पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं - सम्मूर्छिम और गर्भज। आगमों में संमूर्छिम जीवों की उत्पत्ति जिस प्रकार से बताई गई है, उसकी तुलना वर्तमान में कोनिंग से की जा सकती है। जिसके औचित्य-अनौचित्य पर चर्चा हो रही है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन प्रकार हैं - जलचर, स्थलचर और खेचर। जलचर के अन्तर्गत. मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मगर, शुंशुमार आदि आते हैं।" स्थलचर की दो मुख्य जातियाँ हैं - चतुष्पद और परिसर्प। चतुष्पद के चार प्रकार हैं - एक खुर वाले, जैसे अश्व आदि, दो खुर वाले, जैसे बैल आदि, गोल पैर वाले, जैसे हाथी आदि और नख-सहित पैर वाले, जैसे शेर आदि। परिसर्प की मुख्यतः दो जातियाँ बताई गई हैं - भुजपरिसर्प। जो भुजाओं के बल पर रेंगते हैं, वे प्राणी भुजपरिसर्प हैं, बैसे गोह आदि। दूसरी जाति उर:परिसर्प की है। इसके अन्तर्गत पेट के बल रेंगने वाले सर्प आदि आते हैं। खेचर की चार जातियाँ बताई गई हैं - चर्म पक्षी, रोम पक्षी, समुद्र पक्षी और वितत पक्षी।" (275)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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