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________________ हिंसा की महामारी से इन जीवों की अनेक जातियाँ-प्रजातियाँ धरती पर से समाप्त हो गई और अनेक समाप्ति के कगार पर हैं। आगम ग्रन्थों में सभी प्रकार के जीवों को बचाने के लिए अनेक स्थलों पर प्रेरणाएँ दी गई हैं। उपासकदशांग में श्रावक को अभय प्रदायक कहा गया है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी सन्तुलन के लिए सभी प्रकार के जीवों का धरती पर होना आवश्यक है। समूचा अर्थ-तन्त्र प्रकृति-तन्त्र पर निर्भर है। अर्थतन्त्र की स्थायी सुरक्षा के लिए प्रकृति-तन्त्र की . सुरक्षा अत्यावश्यक है। मानववाद और अर्थशास्त्र विश्व के अधिकतर धर्म-दर्शन मानववाद पर खड़े हैं। जैन धर्म आत्मवादी धर्म है। जहाँ आत्मवाद है, वहाँ मानववाद सहज रूप से उसके सम्पूर्ण गहरे अर्थों में विद्यमान है। मानव का अर्थ करते हुए कहा गया है कि जो मन के द्वारा हेयउपादेय, तत्व-अतत्व, धर्म-अधर्म और हित-अहित का विचार करने में सक्षम, कार्य में निपुण और मन से उत्कृष्ट होते हैं, वे मानव कहलाते हैं। जैन दर्शन का मानववाद, आत्मवाद की मजबूत बुनियाद पर खड़ा है। इस आधार पर पश्चिमी मानववाद निराधार है। इस मानववाद पर चोट करती लेखक की कविता है - अपनी बचकानी हरकतों के क्रम में कुछ आदमियों ने बचाई थी थोड़ी-सी संवेदना सिर्फ आदमी के लिए! तब से बची-खुची आदमियत ने भी दम तोड़ दिया। अब बची है संवेदना से शून्य जिन्दा लाशों की भीड़!'' मनुष्य पर संकटों की एक वजह यह है कि वह मनुष्येत्तर प्राणियों के प्रति संवेदनशील नहीं रहा। आचारांग नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु कहते हैं - एक्का मणुस्स-जाई / सम्पूर्ण मानव-जाति एक है। भगवान महावीर जाति, वर्ण, वर्ग आदि आधारों पर मानव-मानव में भेद नहीं करते हैं। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त मानवता को अपमानित करने वाले भेदों को अस्वीकार कर दिया। धर्म साधना का उपदेश सभी के लिए समान है। जो उपदेश धनवान या उच्च समझे (276)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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