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________________ वन सम्पदा एवं भूमि का उपयोग बढ़ रहा है, उससे एक बड़ा संकट कुछ ही दशकों में पूरे मानव समाज पर जाने वाला है। भारत के ही अनेक क्षेत्रों में भू-जल समाप्त होने का डर है। वैज्ञानिकों ने यह भी कहना प्रारम्भ कर दिया है कि अनेक खनिज पदार्थ, खनिज तेलएवं वन सम्पदा की मात्रा अगले 50 वर्षों में समाप्त प्राय हो जाएगी। अर्थशास्त्री भी आज यह कहने लगे हैं कि आज की विकास दर को कम कर के साधनों को भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित किया जाना चाहिए। जैन आचार्य सैंकड़ों वर्षों से यही कहते आए है कि आवश्यकताओं को सीमित करो, परिग्रह को सीमित करो तथा भविष्य व वर्तमान के बीच संतुलन को बनाए रखो। कहने का तात्पर्य यह है कि जैन आगमों में जो कुछ सैंकड़ों वर्ष पूर्व कहा गया था, उसकी सत्यता एवं उपादेयता आज प्रमाणित होने लगी है, क्योंकि आर्थिक संवृद्धि दर को बढ़ाने (परिग्रह) के लालच में साधनों का अंधा-धुंध उपयोग किया जा रहा है। यदि केन्द्र, राज्य या स्थानीय सरकार टिकाऊ विकास (Sustainable Development) की नीति पर चलना प्रारम्भ कर दें तो साधनों (जल, खनिज, वायु, भूमि, वन-सम्पदा आदि) के उपयोग में विवेक रखना होगा। इसी के साथ आगमों (आचारांग, ज्ञाताधर्म कथांग) आदि में वर्णित यह बात भी आज के संदर्भ में महत्वपूर्ण हो जाती है कि शिल्प आर्य, यानी कुटीर उद्योगों का विकास करके : हम न केवल ग्राम स्वावलम्बन की ओर बढ़ सकते हैं अपितु आर्थिक विषमताओं को भी कम कर सकते हैं। इसके फलस्वरूप अंततः सामाजिक असंतोष, आर्थिक अपराधों एवं अशान्ति जैसी समस्याएं भी कम होंगी। संक्षेप में जैन आगमों में वर्णित श्रावक के व्रतों-विशेषतः अपरिग्रह तथा उद्योगनी हिंसा को जितना प्रचार व प्रसार होगा समाज में व्याप्त अनेक गंभीर समस्याएं उतनी ही कम होंगी। इसी प्रकार, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत को धारण करने से अनावश्यक उपभोग प्रवृत्ति से बचाया जा सकता है। - जैन आगमों में धर्म के चार अंग (दान, शील, तप तथा भाव) बतलाए * गए हैं। इनमें दान का अपना अलग अर्थशास्त्र है। प्रायः सभी धर्मों (इस्लाम, ईसाई, बौद्ध) में यह बतलाया गया है कि राज्य के संसाधन सीमित होने के कारण अकिंचन तथा निर्धन व्यक्तियों के लिए समर्थ एवं धनी व्यक्तियों को अपनी आय - का एक अंश व्यय करना चाहिए। अन्य शब्दों में, दान एक प्रकार का स्वैच्छिक (xxv)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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