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________________ इन अतिचारों के दोषों से बचने के लिए मर्यादा से अधिक संग्रह को सत्कार्यों में लगाकर व्रत का निरतिचार पालन करना चाहिये। ये पाँच व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। आगे के सात व्रतों में तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत हैं। इससे पूर्व रात्रि भोजन त्याग पर विचार किया जा रहा है। रात्रि-भोजन निषेध ___ रात्रिभोजन त्याग भगवान महावीर की विशिष्ट और अनुपम देन है। आचार्य सुधर्मा भ. महावीर की स्तुति में कहते हैं - ‘से वारिया इत्थि संराई भत्तं' 18.. श्रमणाचार में रात्रिभोजन-त्याग को छठवें महाव्रत का दर्जा दिया गया है तथा श्रमण वर्ग के लिए रात्रिभोजन पूर्ण रूप से निषिद्ध बताया गया है। श्रमण वर्ग रात्रि में जल सेवन भी नहीं करता है। सूर्यास्त होते होते भी कोई श्रमण भोजन करता है तो वह 'पापी श्रमण' कहलाता है। महाव्रतों के अपवाद मिल सकते हैं, पर रात्रि भोजन त्याग का कोई अपवाद नहीं है। इससे रात्रिभोजन त्याग की विशिष्टता और महत्ता का पता चलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 11 प्रकार के संयमाचरण में रात्रिभोजन त्याग को समाविष्ट किया है। श्रावकाचार में भी रात्रिभोजन त्याग को छठवें व्रत की संज्ञा दी गई है। रात्रिभोजन त्याग का स्वास्थ्य के साथ भी गहरा सम्बन्ध है। रात को नहीं खाने वाला रात्रिभोजनजन्य बीमारियों बचा रहता है। इसका व्यक्ति के बजट और क्षमता पर अनुकूल प्रभाव होता है। जैन गृहस्थाचार में रात्रिभोजन त्याग एक विशिष्ट पहचान है। वह पहचान आज कम होती जा रही है। उसका सामाजिक जन-जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। वह इस रूप में कि पहले तो व्यक्तिगत तौर पर रात्रि-भोजन होता था; अब सामूहिक रूप से रात को खाया और खिलाया जाता है। वह भी सामान्य रूप से नहीं, बल्कि आडम्बर और वैभव के प्रदर्शन के साथ बड़े-बड़े रात्रि भोज किये जाते हैं। धनाढ्य-वर्ग ऐसे रात्रि भोजों में कुछ घण्टों में अनाप-शनाप पैसा पानी की तरह बहा देता है। निम्न मध्य वर्गीय जन-जीवन पर इस प्रकार के प्रदर्शनों का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता है। यदि इन भोजों को दिन में कर लिया जाय तो समाज का अपव्यय तो रुकेगा ही, समाज में अनावश्यक होड़ा-होड़ी में भी कमी आएगी। अनेक जैन गृहस्थ आज भी सामूहिक रात्रि भोजों का निषेध करके समाज को समता और समृद्धि का सन्देश देते हैं। रात्रि-भोजों का समाज और राष्ट्र पर विपरीत आर्थिक प्रभाव होता है। इस प्रभाव के आकलन की आवश्यकता है। (186)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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