SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणव्रत . ___ गृहस्थ के बारह व्रतों के क्रम में भ. महावीर ने पाँच अणुव्रतों के बाद तीन गुणव्रतों की व्यवस्था की - दिशा परिमाण, उपभोग-परिभोग परिमाण और अनर्थदण्ड-त्याग। गुणव्रत और शिक्षाव्रत के नाम, क्रम और संख्या को लेकर आचार्यों और विद्वानों में मामूली मतभेद है। लेकिन उसकी चर्चा यहाँ पर अभीष्ट नहीं है। गुणव्रत अणुव्रतों के परिपालन में सहायक बनते हैं। साथ ही गृहस्थाचार को अधिक उन्नत व परिपूर्ण बनाते हैं। जैसे परकोटे नगर की रक्षा करते हैं वैसे ही शील-व्रत (गुण-शिक्षाव्रत) अणुव्रतों की रक्षा करते हैं। अर्थिक दृष्टि से गुणव्रत अत्यधिक महत्वशाली हैं। 6. दिशा-परिमाण व्रत (दिग्व्रत) उपासकदशांग में परिग्रह-परिमाण की तरह इस व्रत को भी इच्छापरिमाण व्रत कहा गया है। आवश्यक-सूत्र के छठवें व्रत में श्रावक एक या दो करण तथा तीन योग से ऊँची, नीची और तिरछी दिशाओं का यथापरिमाण करता है। श्रावक यह संकल्प करता है कि वह अमुक-अमुक दिशाओं में इतनी-इतनी दूरी तक नहीं जायेगा। जो गृहस्थ दो करण तीन योग से दिशा का परिमाण करता है, वह दूसरों से भी दिशाओं का अतिक्रमण नहीं करवायेगा। दिशाओं को तीन भागों में बाँटा : गया हैं - 1. ऊर्ध्व दिशा : ऊपर की ओर जाने की मर्यादा करना, जैसे पहाड़, वृक्ष, ... बहुमंजिले मकान आदि की अमुक ऊँचाई तक जाना। वर्तमान सन्दर्भो में अन्तरिक्ष-यात्रा व उपग्रह-प्रक्षेपण सम्बन्धी आचार-संहिताओं के सम्बन्ध में इस सीमाकरण का महत्व है। 2. अधोदिशा : खदान, समुद्र या धरती के निचले हिस्सों में अमुक गहराई तक जाने की मर्यादा करना। किस सीमा तक खदान खोदने से भूगर्भीय पर्यावरण पर नुकसान नहीं होगा, जल के लिए कितनी गहराई तक कूप या नलकूप (हैण्डपम्प और बोरिंग) खुदवाने से भूगर्भीय जल स्रोतों और पर्यावरण पर विपरीत असर नहीं होगा। ये प्रश्न आज बहुत प्रासंगिक हो गये हैं, जिनके उत्तर दिग्व्रत में ढूंढे जा सकते हैं। झील, समुद्र आदि की अमर्यादित गहराइयों में मत्स्याखेट व जलीय जन्तुओं को पकड़ने से समुद्री पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर होने वाले दुष्प्रभावों का आकलन भी दिग्व्रत की दृष्टि से (187)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy