SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1. क्षेत्र : कृषि, आवासीय या वाणिज्यिक भूमि अथवा भूखण्ड। 2. वास्तु : मकान आदि अचल सम्पत्ति। 3. हिरण्य : चाँदी और चाँदी की मुद्राएँ व वस्तुएँ। 4. सुवर्ण : स्वर्ण और स्वर्ण की मुद्राएँ व वस्तुएँ / " 5. द्विपद : दास-दासी, नौकर-चाकर, कर्मचारी आदि। 6. चतुष्पद : पशुधन। 7. धन : समस्त चल सम्पत्ति, वाहन आदि। 8. धान्य : अनाज और खाने-पीने की वस्तुएँ। 9. कुप्य : घर गृहस्थी का अन्य सामान / आजकल मध्य व उच्च वर्गीय परिवारों के घर अनेक प्रकार की अनावश्यक चीजों से भरे होते हैं। गृहस्थ को सभी प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा करनी चाहिये। धरती पर मानव की उचित आवश्यकता-पूर्ति के लिए तो संसाधन है, परन्तु इच्छा-पूर्ति के लिए नहीं। उपासकदशांग (1/49) के अनुसार इच्छा-परिमाण व्रत के पंचातिचारों का वर्णन किया जा रहा है। 1. क्षेत्र और वास्तु के परिमाण का अतिक्रमण : श्रावक व्रत ग्रहण के द्वारा जितने भूमि और भवन की मर्यादा करता है, उससे अधिक रखने पर दोष लगता है। 2. हिरण्य-सवर्ण का परिमाण अतिक्रमण : श्रावक हिरण्य और सुवर्ण का परिमाण करें तथा निर्धारित परिमाण का उल्लंघन नहीं करें। उल्लंघन पर इस अतिचार का दोष लगेगा। 3. धन-धान्य का परिमाण अतिक्रमण : इसमें व्रत ग्रहण के द्वारा जितने धन * ' और धान्य की मर्यादा करता है, उससे अधिक रखने पर अतिचार का दोष लगता है। 4. द्विपद-चतुष्पद का परिमाण अतिक्रमण : इस अतिचार में भी मर्यादा से अधिक सेवक और पशु-सम्पदा रखने को दोषपूर्ण बताया है। 5. कुप्य का परिमाण अतिक्रमण : परिग्रह का परिमाण करने वाला गृहस्थ घर की, व्यवसाय की सारी वस्तुओं की मर्यादा करता है। वैसी मर्यादा के उल्लंघन पर इस अतिचार का दोष लगता है। (185)
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy