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________________ मरिय (मिर्च), पिप्पल (पीपल), सरिसवत्थग (सरसों), जीरा, हींग, कपूर, जायफल, प्याज, लहसून आदि इन उल्लेखों से स्पष्ट होता है कि विभिन्न मसालों की खेती की जाती थी। कुछ मसालें मुख्यतः भोजन को स्वादिष्ट बनाने और कुछ औषधीय दृश्टि से महत्वपूर्ण होते हैं। भारत में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति मुख्यतः वानस्पतिक रही है। उस समय के व्यक्तियों को मसालों के साथ अनेक प्रकार की जड़ीबूटियों और वनस्पतियों तथा उनके उपयोग का पता था। गन्ना चावल की भाँति गन्ना (उच्छु) भी मुख्य फसलों में माना जाता था। गन्ने की खेती होती थी और वहद स्तर पर नियमित रूप से होती थी। गुड, शक्कर और खाण्डसारी उद्योग गन्ने की खेती पर ही निर्भर होने से गन्ने का अर्थशास्त्रीय महत्व पर्याप्त था। भगवान श्री ऋषभदेव का प्रथम पारणा ईक्षु रस से ही हुआ था। शास्त्रों में ईक्षु गृहों के उल्लेख मिलते हैं, जिनमें साधु-साध्वियों के ठहरने के उल्लेख भी मिलते हैं। मत्स्यण्डिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर नाम की शक्करों का उल्लेख मिलता है। ईख के साथ कद् बोया जाता था और लोग उसे गुड़ के साथ खाते थे।" कपास समाज की वस्त्र आवश्यकता की पूर्ति के लिए कपास की खेती भी मुख्य धन्धा था। समूचा वस्त्र उद्योग कपास की खेती पर ही निर्भर था। कपास को तुलकड़, कप्पास और फलही कहा जाता था। वानस्पतिक रेशम और ऊर्णा (ऊन), क्षौम (छालरी) और सन की फसलें होती थी। सूत्रकृतांग में शालि अथवा शाल्मलि वृक्ष का उल्लेख मिलता है, जिससे रेशमी सूत प्राप्त होता था साग-सब्जियां और अन्य बैंगन, ककड़ी, मूली, पालक (पालंक), करेला (करेल्ल), कन्द (आलुग), सिंघाड़ा (शृंगारक), सूरण, तुम्बी, मूली, ककड़ी आदि तरह-तरह की सब्जियाँ बोई जाती थीं। ताम्बूल (पान), पुगफली (सुपारी), सीतल चीनी (कक्कोल) आदि का उपयोग होता था। वृक्ष, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्लि आदि के उल्लेख विविधतापूर्ण कृषि और वृक्ष-खेती को स्पष्ट करते हैं। ... भण्डारण धान्य को सुरक्षित रखने के लिए भी रोचक तरीके अपनाये जाते थे। हाताधर्मकथांग के अनुसार वर्षा ऋतु में धान्य को घड़ों में, दोरों में, मंच, टाण (95) .
SR No.004281
Book TitleJain Agamo ka Arthashastriya Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDilip Dhing
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2007
Total Pages408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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