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________________ मया गच्छपरिपालनक्षमाः शिष्याः, ततो विशेषेणैव सांप्रतं ममाऽऽत्महितमनुष्ठातुमुचितमिति / विचिन्त्य चेदं, सति परिज्ञाने आत्मीयमायु:- . शेषं स्वयमेव पर्यालोचयति, तदभावेऽन्यमतिशयिनमाचार्यादिकं पृच्छति, तत्र स्तोके स्वायुषि भक्तपरिज्ञादीनामन्यतरद् मरणं प्रतिपद्यते। अथ दीर्घमायुः, केवलं जङ्घाबलपरिक्षीणः, तदा वृद्धवासं स्वीकुरुते; पुष्टायां तु शक्तौ जिनकल्पादिप्रतिपत्तिमुररीकरोति। तत्र जिनकल्पं प्रतिपित्सुना प्रथममेव तावत् पञ्चभिस्तुलनाभिरात्मा तोलनीयः, तद्यथातवेण सत्तेण सुत्तेण एगत्तेण बलेण य। तुलणा पंचहा वुत्ता जिणकप्पं पडिवजओ॥ [तपसा सत्त्वेन सूत्रेण एकत्वेन बलेन च। तुलना पञ्चधा उक्ता जिनकल्पं प्रतिपद्यमानस्य॥] तुलना, भावना, परिकर्म चेत्येकार्थानि / तत्राऽऽचार्योपाध्याय-प्रवर्तक-स्थविर-गणावच्छेदकलक्षणाः प्रायः पञ्चैव जनाः प्रशस्ताभिरेताभिः पञ्चभिर्भावनाभिर्जिनकल्पं प्रतिपित्सवः प्रथममेवाऽऽत्मानं भावयन्ति। - अप्रशस्तास्तु-कन्दर्प-देवकिल्बिषिका-ऽऽभियोगिका-ऽसुर-संमोहस्वरूपाः पञ्च भावनाः सर्वथा दूरतः परित्यजन्ति। / तत्र तपसाऽऽत्मानं भावयंस्तथा बुभुक्षां पराजयते यथा देवाद्युपसर्गादिनाऽनेषणादिकरणतो यदि षण्मासान् यावदाहारं न लभते, तथापि न बाध्यते। पालन-संचालन आदि में समर्थ-शिष्य भी अब तैयार हो चुके हैं, इसलिए अब तो मेरे लिए यही उचित है कि मैं अपना विशेषतः आत्महित करूं।' ऐसा विचार कर, यदि विशिष्ट ज्ञान की स्थिति (क्षमता स्वयं में) हो तो वह, 'अपनी आयु कितनी शेष है'- इसकी पर्यालोचना करता है, अन्यथा (विशिष्ट ज्ञान के अभाव में) किसी अन्य ज्ञानातिशयधारी (विशिष्टज्ञानी) आचार्य आदि से (अपनी आयु के विषय में) पूछता है। तब, यदि आयु थोड़ी ही शेष रह गई होती है तो वह 'भक्तपरिज्ञा' आदि में से किसी एक मरण को अंगीकार करता है। और, आयु लम्बी (शेष) होने की स्थिति में, यदि जवा-बल की क्षीणता हो तो वृद्धवास स्वीकार करता है। यदि शक्ति पूर्ण (पर्याप्त) हो, तो वह 'जिनकल्प' आदि को अंगीकार करता है। (पांच तुलनाएं) - अब; यदि 'जिनकल्प' स्वीकार करने की इच्छा हो तो उसे सर्वप्रथम इन पांच तुलनाओं (भावनाओ) के माध्यम से आत्मा (स्वयं) को तोलना (आत्म-सशक्तीकरण करना) चाहिए।उदाहरणार्थजिनकल्प को अंगीकार करने वाले के लिए (उपयोगी) पांच भावनाएं कही गई हैं- (1) तपसम्बन्धी, (2) सत्त्वसम्बन्धी, (3) सूत्रसम्बन्धी, (4) एकत्वसम्बन्धी, (5) बल-सम्बन्धी / तुलना, भावना, परिकर्म- ये सभी शब्द एकार्थक (समानार्थक) हैं। जिनकल्प स्वीकार करने वालों में प्रायः आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर व गणावच्छेदक- इनमें से कोई एक होता है, और सर्वप्रथम इन (उक्त) पांच भावनाओं के माध्यम से आत्मा को भावित करता है, तोलता है (आत्म-शक्ति को जांचतापरखता है और आगे की साधना की दृष्टि से सशक्त करता है)। __वह कन्दर्प, किल्बिषक, आभियोगिक, आसुर, व संमोह -इनसे सम्बन्धित पांच अशुभ भावनाओं का सर्वथा त्याग करता है। (उक्त पांच प्रशस्त भावनाओं में) तप-सम्बन्धी भावना से आत्मा --- विशेषावश्यक भाष्य --- 23
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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