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________________ निप्फाइआ य सीसा सउणी जह अण्डयं पयत्तेण। बारससंवच्छरियं सो संलेहं अह करेड़॥१॥ [निष्पादिताश्च शिष्याः शकुनी यथाऽण्डकं प्रयत्नेन / द्वादशसांवत्सरिकं स संलेखमथ करोति॥] चत्तारि विचित्ताई विगईनिजूहिआइं चत्तारि। संवच्छरे उ दोन्नि उ एगन्तरियं च आयामं॥२॥ [चत्वारि विचित्राणि विकृतिनि!हितानि चत्वारि / संवत्सरौ तु द्वौ त्वेकान्तरितं चाऽऽयामम्॥] . . नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयामं। अन्ने वि य छम्मासे होइ विगिटुं तवो कम्मं // 3 // [नातिविकृष्टं च तपः षण्मासान् परिमितं चायामम्। अन्यानपि च षण्मासान् भवति विकृष्टं तपः कर्म // ] वासं कोडिसहिअं आयामं कटु आणुपुव्वीए। गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ॥४॥ [वर्ष कोटिसहितं आयामं कृत्वाऽऽनुपूर्व्या। गिरिकन्दरां तु गत्वा पादपगमनमथ करोति // ] इत्यादिका ज्ञातव्या। द्वितीये तु विहारे जिनकल्पादिप्रतिपत्तौ सामाचारी निर्दिश्यते- तत्र जिनकल्पादि प्रतिपित्सुनाऽऽदावेव / पूर्वापररात्रकाले तावदिदं चिन्तनीयम्- विशुद्धचारित्रानुष्ठानेन कृतं मयाऽऽत्महितम्, शिष्याद्युपकारतः परहितं. च, निष्पन्नाश्चेदानीं -अर्थात् जिस प्रकार कोई मादा पक्षी अपने अण्डों को प्रयत्न-पूर्वक (सावधानी से) सेती है (और जब बच्चे उड़ने लायक हो जाते हैं तो उन्हें छोड़ देती है), उसी प्रकार 'मैंने अपने शिष्यों को (सभी प्रकार से) तैयार कर दिया है' (और अब मेरे लिए संलेखना लेने का उचित अवसर है) -इस प्रकार (निश्चिन्त होकर) वह (उत्कृष्ट काल की दृष्टि से) बारह वर्षों तक की सल्लेखना ग्रहण करता है॥१॥ (इन बारह वर्षों के कार्यकाल को वह इस तरह नियोजित करता है-) प्रथम चार वर्ष विचित्र यानी अनेक प्रकार की (षष्ठ, अष्टम आदि कायक्लेश रूप) तपश्चर्या से, बाद के चार वर्ष (दूध, दही, घी व गुड़ आदि) विकृतियों का त्याग करके व्यतीत करता है। आगे के दो वर्षों में वह एकान्तरित आचाम्ल भोजन ग्रहण करता है // 2 // इसके बाद, छः महीनों तक अनतिविकृष्ट यानी मध्यम तपश्चर्या का अनुष्ठान एवं (पारणे के रूप में) परिमित आचाम्ल का ग्रहण करता है, और अन्त के छः महीनों में उत्कृष्ट (षष्ठ, अष्टम आदि) तपश्चर्या का अनुष्ठान करता है // 3 // बाद में, एक वर्ष तक आनुपूर्वी व कोटि-सहित (अर्थात् एक प्रत्याख्यान पूरा होते ही दूसरा प्रत्याख्यान प्रारम्भ करता जाए -इस प्रकार) आचाम्ल भोजन करता है और अंत में, किसी गिरि व कन्दरा में जाकर ‘पादपोपगमन' मरण स्वीकार करता है॥४॥ (जिनकल्पविधि व जिनकल्पचर्या) दूसरे विहार में 'जिनकल्प' आदि की स्थिति अपनाई जाती है। उससे सम्बन्धित 'सामाचारी' को इस प्रकार बताया गया है- 'जिनकल्प' की स्थिति अंगीकार करने के इच्छुक साधक को सर्वप्रथम, मध्यरात्रि में इस प्रकार चिन्तन करना चाहिए- “मैंने विशुद्ध चारित्र का अनुष्ठान कर आत्म-हित कर लिया है, शिष्यों आदि के उपकार द्वारा पर-हित भी मैंने कर लिया है। गच्छ के A- 22 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- .-----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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