SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्त्वभावनया तु भयं पराजयते, तत्र भयजयार्थं रात्रौ सुप्तेषु शेषसाधुषूपाश्रय एव कायोत्सर्ग कुर्वतः प्रथमा सत्त्वभावना भवति, द्वितीयादिकास्तूपाश्रयबाह्यादिप्रदेशेषु / आह च पढमा उवस्सयम्मि बीया बाहिं तइया चउक्कम्मि। सुण्णहरम्मि चउत्थी अह पंचमिया मसाणम्मि॥ [प्रथमा उपाश्रये द्वितीया बहिस्तृतीया चतुष्के / शून्यगृहे चतुर्थी अथ पञ्चमी श्मशाने॥] . सूत्रभावनया तु स्वनामवत् सूत्रं परिचितं तथा करोति यथा रात्रौ दिवा चोच्छ्वासप्राणस्तोकलवमुहूर्तादिकं कालं सूत्रपरावर्तनानुसारेणैव सर्वं सम्यगवबुध्यते। एकत्वभावनया चाऽऽत्मानं भावयन् सङ्घाटिकसाध्वादिना सह पूर्वप्रवृत्तानालाप-सूत्रार्थसुखदुःखादिप्रश्र-मिथ:कथादिव्यतिकरान् सर्वानपि परिहरति, ततो बाह्यममत्वे मूलत एव व्यवच्छेदिते पश्चाद् देहोपध्यादिभ्योऽपि भिन्नमात्मानं पश्यन् सर्वथा तेष्वपि निरभिष्वङ्गो भवति / को भावित करते हुए, वह भूख पर इस प्रकार विजय प्राप्त कर लेता है कि देव आदि की ओर से उपसर्ग होने पर भी, छः मास तक शुद्ध आहार आदि न भी मिले तो भी, उसे किसी पीड़ां (या घबराहट) का अनुभव नहीं होता। सत्त्व-सम्बन्धी भावना के माध्यम से आत्मा को भावित करते हुए (1) भय पर विजय प्राप्त करता है। वह भय-जय हेतु रात में शेष साधुओं के सो जाने पर, उपाश्रय में ही कायोत्सर्ग करता हैयह प्रथम सत्त्वभावना है। (2-5) दूसरी, तीसरी, चौथी व पांचवीं सत्त्व भावना उपाश्रय आदि के बाहर (जैसे- दूसरी भावना उपाश्रय से बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्यगृह में और पांचवीं श्मशान में) की जाती है। कहा भी है ___ "प्रथम (सत्त्व भावना) उपाश्रय में, दूसरी उपाश्रय के बाहर, तीसरी चौराहे पर, चौथी शून्य घर में और पांचवीं श्मशान में की जाती है।" इसके बाद, सूत्र-सम्बन्धी भावना (से आत्मा को भावित) करते हुए, जिस प्रकार अपना नाम स्वयं के लिए परिचित होता है, उसी तरह 'सूत्र' (आगमादि) को इतना परिचित कर लेता है कि रात हो या दिन, उच्छ्वास, प्राण जैसे लघु काल लव, मुहूर्त आदि के अन्दर ही, सूत्रपरावर्तन के अनुरूप, उसके द्वारा समस्त 'सूत्र' का सम्यक्तया ज्ञान (स्वाध्याय) कर लिया जा सकता है। उसके बाद, एकत्व-सम्बन्धी भावना से आत्मा को भावित करते हुए, वह अपने सिंघाड़े के साधु आदि के साथ पूर्वकृत आलाप, सूत्रार्थ-सम्बन्धी वचन-व्यवहार, सुख-दुःखादि की जानकारी, परस्पर-कथा (बातचीत) आदि समस्त सम्बन्धों का त्याग कर देता है। इस प्रकार वह बाह्य ममत्व का निर्मूल उच्छेद करने के बाद, देह, उपकरण आदि से स्वयं की आत्मा को भिन्न रूप में देखते हुए, सर्वतः उन सब में भी निरासक्त हो जाता है। Ma 24 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy