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________________ भवति, अन्येषां च स पश्चात् तत्स्थिरतामुत्पादयति, श्रुताद्यतिशायिनश्चाचार्यादीन् नानास्थानेषु पश्यतः सूत्रार्थेषु स(सा)माचार्यां चाऽस्य विशेषोपलम्भो भवति, नानादेशभाषासमाचारांश्चैष बुध्यते, ततश्च तत्तद्देशजानामपि विनेयानां तत्तद्भाषया धर्मं कथयति, ततः प्रतिबोध्य - तान् प्रव्राजयति, पूर्वप्रव्रजितास्तु तदुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, निःशेषास्मद्भाषासमाचारकशलोऽयमिति शिष्याणां तदुपरि प्रीतियोगश्च जायते. इत्यादिगुणदर्शनादनियतवासः। 'निष्फत्ती यत्ति' एवं चानियतवासेन द्वादश वर्षाणि पर्यटतस्तस्याऽऽचार्यपदार्हशिष्यत्वेनाऽऽत्मनो निष्पत्तिर्भवति, अन्येषां च प्रभूतशिष्याणां तदन्तिके निष्पत्तिर्जायत इति / 'विहारो त्ति' एवं शिष्यत्वेन निष्पत्तौ, सूरिपदे च प्राप्ते, स्वपरोपकारकरणेन दीर्घ च पर्याये परिपालिते, अन्यस्मिंश्च योग्यशिष्ये आचार्यपदे व्यवस्थापिते, ततोऽनन्तरं विहरणं विशेषेण भगवदभिहितमार्गे पराक्रमणं विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽनेन कर्तव्यः। स च द्विविध:- भक्तपरिज्ञा-इङ्गिनी-पादपोपगमनलक्षणमभ्युद्यतमरणम्, जिनकल्पपरिहारविशुद्धिककल्प-यथालन्दिककल्पप्रतिपत्तिर्वा / अस्मिंश्च द्विविधेऽपि विहारे सामाचारी ज्ञात्वाऽनुष्ठेया। सा चाऽऽद्ये मरणलक्षणे विहारे भगवान् निर्वाण को प्राप्त हुए' -इत्यादि अध्यवसाय के कारण हर्षातिरेक से उसके सम्यक्त्व की स्थिरता होती है, बाद में वह अन्य लोगों के सम्यक्त्व को स्थिर करता है, तदनन्तर, उन-उन देशों के शिष्यों को उन-उन देशों की भाषा में ही धर्मोपदेश देता है, तदनन्तर, उन्हें प्रतिबोधित कर उन्हें प्रव्रजित करता है, पूर्वप्रव्रजित शिष्यों को उनकी उपसंपदा प्राप्त होती है, 'हमारी समस्त भाषाओं व आचारों में यह (गुरु) कुशल है' -ऐसा जानकर शिष्यों की उस (गुरु) पर 'प्रीति' होने लगती है। इस प्रकार अनियतवास में अनेक गुण दृष्टिगोचर होते हैं। निप्फत्ती य त्ति- इस प्रकार 'अनियत वास' करते हुए बारह वर्षों तक पर्यटन (विहार) करते रहने वाले को आचार्यपद-योग्य शिष्य के रूप में आत्मीय निष्पत्ति (अर्थात् पूर्णता) प्राप्त हो जाती है, (इतना ही नहीं) अन्य भी जो शिष्य उसके पास में रहते हैं, उनको भी निष्पत्ति (पूर्णता) प्राप्त हो जाती है। विहारो त्ति इस प्रकार (योग्य) शिष्यत्व रूप में निष्पत्ति हो जाने पर, और सूरि (आचार्य) पद प्राप्त हो जाने पर, वह स्व-पर उपकार करते हुए (श्रामण्य के) दीर्घ पर्याय का पालन करे, और (बाद में) अपने किसी अन्य योग्य शिष्य को आचार्य-पद पर व्यवस्थित करे और उसके बाद उसे 'विहार' अर्थात् भगवान् (तीर्थंकर) द्वारा निरूपित (मोक्ष) मार्ग पर (आगे बढ़ने हेतु) विशेष पराक्रम-स्वरूपविशेष अनुष्ठान' करना चाहिए। वह (विहार रूप विशेष अनुष्ठान) दो प्रकार का होता है- (1) भक्तपरिज्ञा, (भक्त प्रत्याख्यान), इङ्गिनीमरण या पादपोपगमन स्वरूप अभ्युद्यत मरण, अथवा (2) जिनकल्पी परिहारविशुद्धि कल्प या यथालन्दिक-कल्प का अङ्गीकार ।इस द्विविध विहार' में (निर्धारित) सामाचारी का ज्ञान कर उसका अनुष्ठान कर्तव्य होता है। प्रथम मरण-रूप विहार में वह (सामाचारी) इस प्रकार ज्ञातव्य है ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 21
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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