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________________ श्रोतव्यः। तस्माद् यत एवं स्थविरकल्पक्रमो यदुत प्रथमं प्रव्रज्या, ततः सूत्राध्ययनम्, ततोऽप्यर्थग्रहणमिति, अतोऽनुयोगप्रदानक्र मेणैवेहाऽधिकार इत्येवं प्रस्तुतमभिसंबध्यते। सूत्राध्ययनानन्तरभावी हि तदर्थव्याख्यानरूप: स्थविर कल्पक्र मदृष्टोऽनुयोग एवावश्यकस्य शास्त्रकृता वक्तुमारब्धः, अतः सूत्राध्ययनकालस्यातिक्रान्तत्वेनेह विवक्षितत्वादनुयोगस्यैवाऽभिधित्सितत्वात् तत्प्रदानक्रमेणैवाऽधिकार इति भावः / एतावच्चाऽस्यां गाथायां प्रकृतोपयोगि। यत्पुनरन्यद् व्याख्यास्यते- 'अनिअओ वासं निप्फत्ती य विहारो' इत्यादि, तत् प्रासङ्गिकमित्यवगन्तव्यम्। तत्र'अनिअओ वासो त्ति' ततोऽस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शिष्यस्याऽनियतं वासः क्रियते, ग्रामनगरसंनिवेशादिष्वनियतनिवासेनैष गृहीतसूत्रार्थः शिष्यो यद्याचार्यपदयोग्यः, तदा जघन्यतोऽपि सहायद्वयं दत्त्वाऽत्मतृतीयो द्वादश वर्षाणि यावद् नानादेशदर्शनं नियमेन कार्यत इत्यर्थः, आचार्यपदानहस्य त्वनियमः। आचार्यपदार्थोऽपि किमिति देशदर्शनं कार्यते? इति चेत्। उच्यते- स हि नानादेशेषु पर्यटस्तीर्थकराणां जन्मादिभूमी: पश्यति, ताश्च दृष्ट्वाऽत्र जाताः, इह दीक्षां प्रतिपन्नाः, अस्मिंश्च देशे निर्वृता भगवन्तः, इत्याद्यध्यवसायतो हर्षातिरेकात् तस्य सम्यक्त्वस्थैर्य उसके अर्थ का श्रवण अवश्य करना चाहिए। चूंकि पहले प्रव्रज्या, फिर सूत्र-अध्ययन, उसके अनन्तर अर्थ-ग्रहण -इस प्रकार यह स्थविरकल्पी क्रम है। अतः अनुयोग-प्रदान-क्रम के अनुरूप ही यहां प्रस्तुत प्रकरण है, इसलिए प्रस्तुत विषय को उसी से सम्बद्ध जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि सूत्रअध्ययन के बाद किया जाने वाला सूत्रार्थ-व्याख्यान रूपी जो स्थविरकल्प है, उसी के अनुरूप शास्त्रकार ने क्रमप्राप्त आवश्यक-सम्बन्धी अनुयोग का निरूपण करना प्रारम्भ किया है, चूंकि सूत्राध्ययन का समय (पूर्ण होकर) बीत गया है- ऐसा यहां विवक्षित है, और (अब) 'अनुयोग' का ही कथन अपेक्षित है, अतः उसके प्रदान-क्रम का ही यह अधिकार (प्रकरण) है। प्रस्तुत गाथा में यहां तक (का कथन) 'प्रकृत विषय' में उपयोगी है। इसके आगे 'अनियत वास, निष्पत्ति व विहार' आदि का व्याख्यान किया जाएगा, वह प्रासंगिक (रूप से निरूपित किया गया) है- ऐसा समझें। यहां अनिअओ वासोत्ति (का अर्थ है-) तदनन्तर यानी सूत्र व अर्थ को ग्रहण कर चुके इस शिष्य के लिए, अनियत वास किया जाता है। तात्पर्य यह है कि सूत्र व अर्थ को ग्रहण कर लेने वाले शिष्य को ग्राम, नगर व खुले स्थान आदि में अनियत (अनियतकालिक) वास करना होता है, यदि वह आचार्य-पद के योग्य है तो कम से कम दो सहायक उसे दिये जाते हैं और तीसरा वह (शिष्य) वयं होता है, और उसे बारह वर्षों तक अनेक देशों का दर्शन नियमतः करना होता है। आचार्य-पद के लिए यदि वह अयोग्य है तो कोई नियम नहीं। (आचार्यपद-प्राप्ति से पूर्व देश-दर्शन आदि) (शंका) आचार्यपद के योग्य (शिष्य) को भी देश-दर्शन क्यों कराया जाता है? इस शंका का समाधान हेतु कह रहे हैं- वह (शिष्य) नाना देशों में भ्रमण (विहार) करते हुए तीर्थंकरों की जन्मभूमियों का दर्शन करता है, उन्हें देखकर 'यहां वे उत्पन्न हुए, यहां उन्होंने दीक्षा ली, इस देश में MA 20 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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