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________________ अन्ये तु- शिक्षाशब्दाद् व्रतमिति पदं पृथक् कृत्वा, व्रतमिति कोऽर्थ:?- शिक्षाऽनन्तरं रात्रिभोजनविरमणषष्ठेषु पञ्चसु महाव्रतेषूपस्थाप्यते शिष्यः, इत्येतदपि द्वितीयं व्याख्यानं कुर्वन्ति / एतच्च कल्पचूां चिरन्तनटीकायां च न दृष्टम्, इत्यस्माभिरुपेक्षितम्। ततः सूत्रेऽधीते यद् विनेयः कार्यते, तदाह- 'अत्थग्गहणं च त्ति' द्वादश वर्षाण्यधीतसूत्रः सन्नसावर्थग्रहणं कार्यते- तस्य पूर्वाधीतसूत्रस्य द्वादश वर्षाणि यावदेषोऽर्थं ग्राह्यत इत्यर्थः। यथा हि हलारघट्टगन्त्र्यादेर्मुक्तो बुभुक्षितो बलीवर्दः प्रथमं तावच्छोभनमशोभनं वा तृणादिकमास्वादमनवगच्छन्नपि सर्वमभ्यवहरति, पश्चाच्च रोमन्थावस्थायां तदास्वादमवगच्छति, एवं विनेयोऽर्थमनवबुध्यमानोऽपि द्वादश वर्षाणि सर्वं सूत्रमधीते, अर्थावगमाभावे च तत् तस्याऽनास्वादं भवति, अर्थग्रहणावस्थायां तु तदवगमात् सुस्वादमाप्यायकं च जायते, अतोऽधीतसूत्रेण द्वादश वर्षाण्यवश्यमर्थः श्रोतव्यः। यथा वा कृषीवल: शाल्यादिधान्यं प्रथमं वपति, तत: पालयति, लुनाति, मलति, पुनीते, गृहमानयति, पश्चात्तु निराकुलचित्तस्तदुपभोगं करोति, तदभावे वपनादिपरिश्रमस्य निष्फलत्वप्रसङ्गात्, एवं शिष्योऽपि सूत्रमधीत्य यदि तदर्थं न शृणुयात्, तदा तदध्ययनप्रयासो विफल एव स्यात्, तस्मात् सूत्राध्ययनान्तरमवश्यमेव द्वादश वर्षाणि तदर्थः कुछ व्याख्याकार 'सिक्खावय' (का संस्कृत रूप 'शिक्षापद' न करते हुए 'शिक्षाव्रत' -ऐसा करते हैं और इस) में शिक्षा और व्रत -इन दोनों को पृथक्-पृथक् (पद मान कर व्याख्यान) करते हैं। 'व्रत' का क्या अर्थ है? (उत्तर-) पंच महाव्रत व छठा रात्रिभोजनविरति व्रत। शिक्षा के बाद, व्रतों में शिष्य को उपस्थापित (प्रतिष्ठित) किया जाता है- इस प्रकार दूसरा व्याख्यान करते हैं। चूंकि यह (व्याख्यान) कल्पचूर्णि व चिरन्तन टीका में (कहीं) दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः हमारी दृष्टि में यह उपेक्षणीय है। अब, सूत्र-अध्ययन करने के बाद, विनेय (शिष्य) को जो कराया जाता है, उसे बता रहे हैं- अत्थरगहणं / तात्पर्य यह है कि बारह वर्षों तक सूत्रों का अध्ययन कर चुके इस (शिष्य) को अर्थ (अर्थात्मक आगम) का ज्ञान कराया जाता है, यानी पहले जिस सूत्र (या सूत्रों) का अध्ययन कर लिया है, उसी (या उन्हीं) के अर्थ का ज्ञान (पुनः) बारह वर्षों तक कराया जाता है। उदाहरणार्थ- जैसे हल, अरहट व भारगाड़ी के बन्धन) से मुक्त कर खुला छोड़ दिया गया भूखा बैल पहले तो (भूख के कारण) अच्छा हो या बुरा -सभी प्रकार के घास को, उसके स्वाद के (ऊपर ध्यान दिये) बिना ही सब कुछ खा लेता है, बाद में जुगाली करते समय उसके स्वाद का अनुभव करता है। इसी प्रकार, विनेय (शिष्य) भी (पहले तो) अर्थ को समझे बिना ही, बारह वर्षों तक समस्त सूत्र का अध्ययन करता है, अर्थ-बोध के अभाव में जो अध्ययन उसके लिए आस्वादहीन (अस्वादु) है, अर्थग्रहण की स्थिति में अर्थ-बोध होने पर वह (अध्ययन) ही स्वादयुक्त (सरस) व तृप्तिदायक (सन्तोषप्रद) हो जाता है। अतः सूत्र-अध्येता द्वारा बारह वर्षों तक निश्चित ही 'अर्थ' का (गुरु-मुख से) श्रवण करना चाहिए। अथवा, जैसे कोई किसान पहले शाली (सठिया) चावल आदि धान्यों को (जमीन में) बोता है, फिर उसकी सार-संभाल करता है, फसल काट कर अलग करता है, कचरा अलग करता है, भूसी आदि हटाकर साफ करता है, उसे घर ले जाता है, इसके बाद ही निराकुलचित्त होकर उसका उपभोग करता है, क्योंकि उपभोग न करे तो फसल बोने आदि में किया जाने वाला श्रम निरर्थक कहा जाएगा। इसी प्रकार, शिष्य भी सूत्र का अध्ययन कर, यदि उसके अर्थ का श्रवण (कर उसे हृदयस्थ) न करे तो उसके अध्ययन का प्रयास ही निरर्थक हो जाएगा। इसलिए, सत्र-अध्ययन के बाद, बारह वर्षों तक ---- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 19 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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