SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इदमुक्तं भवति- यथा तरुणः समर्थपुरुषः पद्मपत्रशतस्य सूच्यादिना वेधं कुर्वाण एवं मन्यते- मयैतानि युगपद् विद्धानि। अथ च प्रतिपत्रं तानि कालभेदेनैव भिद्यन्ते, न चाऽसौ तं कालमतिसौक्ष्म्या भेदेनाऽवबुध्यते, एवमत्राऽप्यवग्रहादिकालस्याऽतिसूक्ष्मतया दुर्विभावनीयत्वेनाऽप्रतिभासः, न पुनरसत्त्वेन। ईहादयो ह्यन्यत्र क्वचित् तावत् स्फुटमेवाऽनुभूयन्ते, यत्राऽपि स्वसंवेदनेन नाऽनुभूयन्ते, तत्राऽपि 'ईहिजड़ नागहियं नजइ नाणीहियं' इत्यादि प्रागसकृदभिहितयुक्तिकलापादवसेयाः। तस्मादुत्पलदलशतवेधोदाहरणेन भ्रान्त एवाऽयं प्रथमत एवाऽपायादिप्रतिभासः। अथोदाहरणान्तरेणाऽप्यस्य भ्रान्ततामुपदर्शयति- 'समयं वेत्यादि'। 'वा' इत्यथवा, यथा शुष्कशष्कुलीदशने समयं युगपदेव सर्वेन्द्रियविषयाणां शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शानामुपलब्धिःप्रतिभाति, तथैषोऽपि प्राथम्येनाऽपायादिप्रतिभासः। है। (प्रश्न-) यह किस कारण से (वैसा) प्रतीत होता है? उत्तर दिया- (दुर्विभावत्वेन)। अवग्रह आदि के दुर्लक्ष्य होने से, यहां अवग्रह आदि के काल की दुर्लक्ष्यता का संकेत है- यह समझ में आ जाता है। (प्रश्न) कहां की तरह? उत्तर दिया- (उत्पलदलशतवेधे इव)। उत्पल यानी पद्म, उसके दल यानी पत्र, उसका शत अर्थात् सौ कमल-पत्र, उन्हें सूई आदि से वेधने की जो क्रिया होती है, उसमें जैसे (वेधने का काल दुर्लक्ष्य) होता है, उसी तरह। तात्पर्य यह है- जैसे कोई तरुण सामर्थ्यवान् व्यक्ति सैकड़ों कमलपत्रों को सूई आदि से वेधने की क्रिया करते हुए ऐसा समझता है कि मैंने इन (सैकड़ों पत्रों) को एक साथ वेधा है, किन्तु (वस्तुस्थिति तो यह होती है कि) उनमें से प्रत्येक पत्र भिन्न-भिन्न काल में ही वेधित होते हैं, किन्तु यह व्यक्ति उस (भिन्न-भिन्न) काल को अतिसूक्ष्म होने से भिन्न-भिन्न रूप में नहीं जानता। उसी तरह वहां भी अवग्रह आदि का काल भी अतिसूक्ष्म होने से दुर्लक्ष्य होता है और प्रतीति में नहीं आता, इसलिए नहीं कि वहां कालभिन्नता है ही नहीं। अन्यत्र कहीं तो ईहा आदि स्पष्ट रूप से ही (भिन्न-भिन्न) अनुभूत होते ही हैं, और जहां भी स्वसंवेदन से वे अनुभूत नहीं होते हैं तो वहां भी 'अगृहीत की ईहा नहीं होती और अनीहित का (निश्चयात्मक) ज्ञान नहीं होता' इत्यादि पहले अनेक बार कही गई युक्तियों के समूह के आधार पर (उनका होना) समझ लेना चाहिए। इसलिए कमलदलशतवेधन के उदाहरण से यह समझ लेना चाहिए कि प्रथम ही (ईहा आदि के बिना) अपाय आदि का जो प्रतिभास होता है, वह भ्रमपूर्ण है। अब अन्य उदाहरण के आधार पर इस (उक्त) प्रतीति की भ्रान्तता का निदर्शन करा रहे हैं(समयं वा इत्यादि)। 'वा' यानी अथवा / जैसे-सूखी पूड़ी को चबाने में एक समय में ही एक साथ ही सभी इन्द्रिय-विषयों -शब्द, रूप, रस, गन्ध व स्पर्श की उपलब्धि होती प्रतीत होती है, उसी तरह यहां भी प्रथम में ही अपाय आदि के होने का प्रतिभास होता है। -- विशेषावश्यक भाष्य ---- 435
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy