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________________ एतदुक्तं भवति- यथा कस्यचिच्छुष्कां दी| शष्कुलिकां भक्षयतः, तच्छब्दोत्थानाच्छन्दविज्ञानमुपजायते, अत एव शुष्कत्वविशेषणम्, मृद्व्यामेतस्यां शब्दानुत्थानादिति। शब्दश्रवणसमकालमेव च दीर्घत्वात् तस्या दृष्ट्या तद्रूपदर्शनं चाऽयमनुभवति, अत एव च दीर्घत्वविशेषणम्, अतिहस्वत्वे मुखप्रविष्टायास्तस्याः शब्दश्रवणसमकालं रूपदर्शनानुभवाभावादिति। रूपदर्शनसमकालं च तद्गन्धज्ञानमनुभवति, अत एव शष्कुलीग्रहणं, गन्धोत्कटत्वात् तस्याः, इक्षुखण्डादिषु तु दीर्घष्वपि तथाविधगन्धाभावादिति। गन्धादिज्ञानसमकालं च तद्रस-स्पर्शज्ञाने अनुभवति / तदेवं पञ्चानामपीन्द्रियविषयाणामुपलब्धियुगपदेवाऽस्य प्रतिभाति। न चेयं सत्या, इन्द्रियज्ञानानां युगपदुत्पादायोगात्। तथाहि-मनसा सह संयुक्तमेवेन्द्रियं स्वविषयज्ञानमुत्पादयति, नान्यथा, अन्यमनस्कस्य रूपादिज्ञानानुपलम्भात्। न च सर्वेन्द्रियैः सह मनो युगपत् संयुज्यते, तस्यैकोपयोगरूपत्वात्, एकत्र ज्ञातरि एककालेऽनेकैः संयुज्यमानत्वाऽयोगात्। तस्माद् मनसोऽत्यन्ताऽऽशुसंचारित्वेन कालभेदस्य दुर्लक्ष्यवाद् युगपत् सर्वेन्द्रियविषयोपलब्धिरस्य प्रतिभाति। परमार्थतस्त्वस्यामपि कालभेदोऽस्त्येव। ततो यथाऽसौ भान्तै!पलक्ष्यते, तथाऽवग्रहादिकालेऽपीति प्रकृतम्। दीर्घत्वविशेषणं च तात्पर्य यह है- जैसे कोई सूखी, दीर्घ पूड़ी खाता है, खाते समय वह उससे (सूखी पूड़ी के टूटने से) उत्पन्न शब्द से 'शब्द-विज्ञान' (शब्द-श्रवण) भी प्राप्त करता है, इसीलिए 'सूखी' विशेषण पूड़ी का दिया गया है, क्योंकि मुलायम पूड़ी के खाने में शब्द नहीं होता। शब्द सुनने के साथ ही, दीर्घ (बड़ी आकृति वाली) होने से, उसे देख कर उसके रूप को देखने का अनुभव होता है, इसीलिए 'दीर्घ' यह विशेषण दिया गया है, क्योंकि अत्यन्त छोटी पूड़ी को मुख में डाला जाय तो शब्द तो सुनाई पड़ता है, किन्तु उसके साथ, रूप (आकार) के दर्शन का अनुभव नहीं होता। रूप-दर्शन के साथ ही उसके गन्ध का ज्ञान भी होता है, इसीलिए पूड़ी के उदाहरण को लिया गया है क्योंकि उसकी गन्ध (अपेक्षाकृत) तेज होती है। ईख के खण्ड में, भले ही वह दीर्घ हो, वैसी गन्ध नहीं पाई जाती। गन्ध आदि ज्ञान के साथ-साथ (खाने वाला) उसके रस व स्पर्श के ज्ञान का भी अनुभव करता है। इस प्रकार, पांचों ही इन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि एक साथ होती प्रतीत होती है। किन्तु यह (प्रतीति) सत्य नहीं है, क्योंकि सभी इन्द्रियों का ज्ञान एक साथ नहीं होता। जैसे-कोई भी इन्द्रिय अपने विषय का ज्ञान उत्पन्न करती है तो वह मन के साथ संयुक्त होकर ही करती है, अन्यथा नहीं। यदि मन अन्यत्र हो (या व्यक्ति अन्यमनस्क हो) तो रूप आदि का ज्ञान नहीं होता। मन का संयोग सभी इन्द्रियों के साथ (एक साथ) नहीं होता, क्योंकि वह (एक समय में)एक ही उपयोग (चेतना का व्यापार) करता है (अतः) एक ज्ञाता का एक ही समय अनेकों (इन्द्रियों) के साथ संयोग नहीं होता। चूंकि मन अत्यन्त शीघ्र गति से संचरण करता है, इसलिए (एक इन्द्रिय से दूसरी इन्द्रिय के साथ संयोग होने में) जो काल-भेद है, वह ज्ञात नहीं होता, अतः सभी इन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि युगपत् होती प्रतीत होती है। वस्तुतः वहां भी काल की भिन्नता तो रहती ही है। इस प्रकार, जैसे भ्रान्ति के कारण वह (कालभिन्नता) स्पष्ट अनुभव में नहीं होती, वैसे ही प्रकृत विषय अवग्रह (आदि) के काल के संदर्भ में भी समझ लेनी चाहिए। [अर्थात् अवग्रह आदि में से किसी एक या अनेक की a 436 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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