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________________ विषयेऽवग्रहेहाऽपायानतिलछ्य स्मृतिरूपा धारणैव लक्ष्यते, यथा 'इदं तद् वस्तु यदस्माभिः पूर्वमुपलब्धम्' इति / तत् कथमुच्यते- . उत्क्रमाऽतिक्रमाभ्याम्, एकादिवैकल्ये चन वस्तुसद्भावाधिगमः? इदं च कथमभिधीयते- 'ईहिजइ नागहियं' इत्यादि? इति प्रेरकाऽभिप्रायः॥ इति गाथार्थः॥२९८॥ भ्रान्तोऽयमनुभव इति दर्शयन्नाह उप्पलदलसयवेहे व्व दुविभावत्तणेण पडिहाइ। समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे विसयाणमुवलद्धी।।२९९॥ [संस्कृतच्छाया:- उत्पलदलशतवेध इव दुर्विभावत्वेन प्रतिभाति / समयं वा शुष्कशष्कुलीदशने विषयाणामुपलब्धिः॥] 'क्वचित् प्रथममेवाऽपायः, क्वचितु धारणैव' इति यत् त्वया प्रेर्यते, तत् 'प्रतिभाति' इत्यनन्तरगाथोक्तेन संबन्धः। केनैतत् प्रतिभाति?, इत्याह- दुःखेन विभाव्यते दुर्विभावो दुर्लक्ष्यस्तद्भावस्तत्त्वं तेन दुविर्भावत्वेन-दुर्लक्ष्यत्वेन 'अवग्रहादिकालस्य' इति गम्यते। कस्मिन्निव? इत्याह- उत्पलं पद्यं तस्य दलानि पत्राणि तेषां शतं तस्य सूच्यादिना वेधनं वेधस्तस्मिन्निव। .. जाय, तो (वहां) अवग्रह व ईहा -इन दोनों का अतिक्रम होकर पहले अपाय ही होता हुआ दिखाई पड़ता है और ऐसा समस्त प्राणियों द्वारा निर्विवाद रूप से अनुभूत भी होता है कि 'यह पुरुष है'। अन्य (अपरिचित) स्थल पर, जिसका सम्यक् निश्चय हो चुका हो, और वासना दृढ़ हो चुकी हो, ऐसे पूर्व उपलब्ध विषय में कहीं अवग्रह, ईहा व अपाय का अतिक्रमण कर स्मृति रूप इस धारणा का होना ही परिलक्षित होता है कि 'जैसे यह वह वस्तु है जो हमने पूर्व में ज्ञात की थी। तब, ऐसी स्थिति में आप यह कैसे कह रहे हैं कि अवग्रह आदि में उत्क्रम व अतिक्रम होने पर या किसी एक का भी अभाव होने पर, वस्तु के सद्भाव का निश्चय नहीं होता? ऐसा कैसे कह रहे हैं कि 'अवग्रह से अगृहीत की ईहा नहीं होती' इत्यादि। यह प्रश्नकर्ता (पूर्वपक्षी) का अभिप्राय है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 298 // (पूर्वपक्षी द्वारा प्रस्तुत) यह अनुभव भ्रमपूर्ण है- इसे (भाष्यकार) स्पष्ट कर रहे हैं __ // 299 // . उप्पलदलसयवेहे व्व दुविभावत्तणेण पडिहाइ। समयं व सुक्कसक्कुलिदसणे विसयाणमुवलद्धी।। __[(गाथा-अर्थ :) (अवग्रह आदि चारों सर्वत्र होते हैं, किन्तु इनमें से किसी के न होने की या आगे-पीछे होने की भ्रान्त प्रतीति इसलिए होती है कि अवग्रह आदि का) काल दुर्लक्ष्य होने से, कमल के सौ पत्तों के भेदने की तरह, अथवा सूखी पूड़ी के खाने में (सभी शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-इन) विषयों की होने वाली उपलब्धि की तरह (धान्त) प्रतीति होती है] व्याख्याः- 'कहीं' पहले ही अपाय, तो कहीं धारणा ही हो जाती है'- यह जो आपने आक्षेप प्रस्तुत किया, इस वाक्य का वहीं गाथा में पहले आए 'प्रतीत होता है' (प्रतिभाति) के साथ सम्बन्ध Ma 434 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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