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________________ को वैन मन्यते, यदुत- अर्थपरिच्छेदे कर्तव्ये आत्मनो द्रव्यमनः करणम्? / किन्तु करणं द्विधा भवति- शरीरगतमन्तःकरणम्, तद्वहिर्भूतं बाह्यकरणं च। तत्रेदं द्रव्यमनोऽन्तःकरणमेवाऽऽत्मनः। ततश्च ‘करणत्तणउ त्ति'। सूत्रस्य सूचामात्रत्वात्, एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वाच्चान्त:करणत्वादित्यर्थः। तनुसंस्थितेन शरीराद् बहिरनिर्गतेन जीवस्तेन जानीयाद् मेर्वादिविषयम्, स्पर्शनेन्द्रियेणेव कमलनालादिस्पर्शम्। प्रयोगः- यदन्त:करणं तेन शरीरस्थेनैव विषयं जीवो गृह्णाति, यथा स्पर्शनेन, अन्त:करणं च द्रव्य मनः। प्रदीपमणि-चन्द्र-सूर्यप्रभादिकं तु बाह्यकरणमात्मन इति साधनविकलः परोक्तदृष्टान्तः। आह- ननु शरीरस्थमपि तत् पद्मनालतन्तुन्यायेन बहिर्द्रव्यमनः किं न नि:सरति?, इत्याह-'एत्तोच्चियेत्यादि / इत एवान्त:करणत्वलक्षणाद्धेतोर्बहिर्न निर्गच्छति द्रव्यमनः स्पर्शनवत्। प्रयोगः- यदन्त:करणं तच्छरीराद् बहिर्न निर्गच्छति, यथा स्पर्शनम् // इति गाथार्थः // 218 // व्याख्याः- पदार्थ-ज्ञान में आत्मा के लिए द्रव्यमन 'करण' (साधन, माध्यम) है -इसे कौन नहीं मानता? (हम भी कहां इन्कार कर रहे हैं?) किन्तु 'करण' दो प्रकार के होते हैं- (१)अन्तःकरण, जो शरीर में ही स्थित रहता है, और (2) बाह्यकरण, जो शरीर से बाहर रहता है। (करणत्यतः)चूंकि सूत्र सूचना (संकेत) करने वाला होता है, और एकदेश (अंश) से समुदाय का बोध कराया जा सकता है, इसलिए यहां 'करण' शब्द (अन्तःकरण का) एकदेशसूचक है। (तनुसंस्थितेन-) शरीर से बिना बाहर निकले, शरीर में (ही) स्थित रहने वाले उस (अन्तःकरण रूप द्रव्यमन) के माध्यम से जीवात्मा (दूरस्थित) मेरु आदि विषयों को (भी) उसी प्रकार जान लेता है जिस प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय के माध्यम से (बहिःस्थित) कमल-नाल आदि के स्पर्श का अनुभव वह करता है। (इसी तथ्य के समर्थक अनुमान रूप) युक्ति इस प्रकार है- जो अन्तःकरण होता है, उसे शरीरस्थ रखते हुए ही जीव (अपने) विषय को उसी तरह जानता है, जिस तरह स्पर्शन इन्द्रिय से (जानता है), द्रव्यमन एक अन्तःकरण है। (बहिर्गमन करने वाले द्रव्यमन द्वारा विषय को जानने में जो अनुमानात्मक युक्ति गाथा 217 में प्रस्तुत की गई है, उसमें) जो पूर्वपक्षी ने प्रदीपादिक दृष्टान्त दिया है, वह साधनविकल (करणत्व हेतु से रहित, अर्थात् अन्तःकरण भिन्न होने से दोषग्रस्त) है, क्योंकि प्रदीप, मणि, चन्द्र, सूर्य आदि प्रभा तो आत्मा के लिए बाह्य करण हैं। (पूर्वपक्षी की ओर से पुनः कथन-) यद्यपि द्रव्यमन शरीरस्थ ही है, किन्तु जैसे पद्मनाल का तन्तु अपने मूल शरीर से बाहर निकल जाता है, उसी तरह द्रव्यमन शरीर से बाहर क्यों नहीं निकल सकता? (भाष्यकार ने) उत्तर दिया- (इत एव हेतोः इत्यादि)। द्रव्यमन का अन्तःकरणत्व रूप लक्षण वाला होना ही वह ‘हेतु' है, जिसके कारण वह द्रव्यमन स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (शरीर से) बाहर नहीं निकलता। यहां युक्ति इस प्रकार है- जो जो अन्तःकरण होता है, वह (शरीर से) बाहर नहीं निकलता, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 218 // Mar 320 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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