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________________ काययोगसहायजीवगृहीत-चिन्ताप्रवर्तकमनोवर्गणान्तःपातिद्रव्यसमूहात्मकं द्रव्यमनः स्वयं विज्ञातृ न भवत्येव, अचेतनत्वात्, उपलशकलवत्, इत्यतो गत्वाऽपि मेर्वादिविषयदेशं किं तद् वराकं करोतु?, तत्र गतादपि तस्मादर्थावगमाभावादिति भावः॥ पराभिप्रायमाशङ्कते- 'अह करणेत्यादि / अथ मन्यसे- यद्यपि द्रव्यमनः स्वयं न किञ्चिज्जानाति, तथापि करणभावः करणत्वं तस्य द्रव्यमनसः प्रदीपादेरिव वस्तुनि प्रकाशयितव्ये समस्ति / ततो जीवः कर्ता तेन द्रव्यमनसा करणभूतेन विजानीयादवबुध्येत मेर्वादिकं वस्त्विति। अत्र प्रयोगः- बहिर्निर्गतेन द्रव्यमनसा प्राप्य विषयं जानाति जीवः, करणत्वात्, प्रदीप-मणि-चन्द्र-सूर्यादिप्रभयेव॥ इति गाथार्थः॥२१७॥ अत्रोत्तरमाह करणत्तणओ तणुसंठिएण जाणिज फरिसणेणं व। एत्तो च्चिय हेऊओ न नीइ बाहिं फरिसणं व॥२१८॥ [संस्कृतच्छाया:- करणत्वतः तनुसंस्थितेन जानीयात् स्पर्शनेनैव। इत एव हेतोर्न निर्गच्छति बहिः स्पर्शनमिव // ] व्याख्याः- जीव काययोग की सहायता से चिन्तन-प्रक्रिया की प्रवर्तक जिन मनोवर्गणा को ग्रहण करता है, उसी के अन्तर्गत जो द्रव्य-समूह है, वही द्रव्यमन है। वह स्वयं ज्ञाता नहीं होता, क्योंकि वह पत्थर के टुकड़े की तरह अचेतन है। अतः मेरु आदि विषयों के प्रदेशों में जाकर भी बेचारा द्रव्यमन क्या कर लेगा? अर्थात् वहां (कथंचित्) चला भी जाए तो उसे पदार्थ-ज्ञान तो होगा नहीं। . अब (उक्त दोष के निवारण हेतु) पूर्वपक्ष (समाधान रूप में अपना) जो अभिप्राय (सम्भावित रूप से) व्यक्त कर सकता है- उसे शंका के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं- (अथ करणभावतः इत्यादि)। यदि आप (पूर्वपक्षी) ऐसा मानते हैं कि यद्यपि द्रव्यमन स्वयं कुछ नहीं जानता, तथापि जैसे वस्तु को प्रकाशित होने में प्रदीप आदि करण (साधन) होते हैं, वैसे ही (पदार्थ-बोध में) द्रव्यमन का करण भाव या करण-रूपता है, अतः (ज्ञान-प्राप्ति का) कर्ता जीव उस करणभूत द्रव्यमन (की सहायता) से मेरुप्रभृति सभी वस्तुओं को जानता है, समझता है। वहां (उक्त मत के समर्थन में अनुभव रूप) युक्ति भी (इस प्रकार) है- जीव बाहर निर्गमन करने वाले द्रव्यमन से विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) कर जानता है, क्योंकि वह (द्रव्यमन) करण है, प्रदीप, मणि, चन्द्र व सूर्य आदि की प्रभा की तरह // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 217 // - अब (भाष्यकार पूर्वपक्ष का) उत्तर दे रहे हैं // 218 // करणत्तणओ तणुसंठिएण जाणिज्ज फरिसणेणं व। एत्तो च्चिय हेऊओ न नीइ बाहिं फरिसणं व // __ [(गाथा-अर्थ :) जीव शरीर-स्थित द्रव्यमन की सहायता से जानता है, क्योंकि वह (द्रव्यमन) (शरीरस्थ) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (ही एक अन्तः) करण है (बाह्य करण नहीं है)। इसी (अन्तः करण होने) के कारण, वह (द्रव्यमन) स्पर्शन इन्द्रिय की तरह (कभी) बाहर नहीं निकलता।] ----- विशेषावश्यक भाष्य --------319 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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