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________________ तदेवं भावमनसो द्रव्यमनसश्च बहिश्चारिताद्यभावादप्राप्यकार्येव मन इत्युक्तम् / सांप्रतं 'नाणुग्गहोवघायाभावाओ लोयणं व' इत्यादिना मनसोऽप्राप्यकारितायाम् 'अनुग्रहोपघाताभावात्' इति यः पूर्वं हेतुरुक्तः, तस्य परोऽसिद्धिं समुद्भावयन्नाह नजइ उवघाओ से दोबल्लोरक्खयाइलिंगेहि। जमणुग्गहो य हरिसाइएहिं तो सो उभयधम्मो॥२१९॥ [संस्कतच्छाया:-ज्ञायते उपघातस्तस्य दौर्बल्योरःक्षतादिलिङ्गैः। यदनुग्रहश्च हर्षादिभिस्ततः स उभयधर्मा // ] इह मृत-नष्टादिकं वस्तु चिन्तयतः, अत्यार्त-रौद्रध्यानप्रवृत्तस्य से' तस्य मनस उपघातो ज्ञायतेऽनुमीयते। कैः?, इत्याहदौर्बल्योरःक्षतादिलिङ्गैः- दौर्बल्यं देहापचयरूपम्, उर:क्षतमुरोविघातः, हृदयबाधेति यावत्, आदिशब्दाद् वातप्रकोपवैकल्यादिपरिग्रहः। अनुग्रहश्च- यद्यस्मात् तस्येष्टसंगम-विभवलाभादिकं वस्तु चिन्तयतो हर्षादिभिरनुमीयते। तत्र वदनविकाशरोमाञ्चोद्गमादिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेषो हर्षः, आदिशब्दाद् देहोपचयोत्साहादिपरिग्रहः। तत् तस्मात्कारणात् तद् मन उपघातानुग्रहलक्षणोभयधर्मकमेव। (मन का विषयकृत अनुग्रह व उपघात नही) इस प्रकार, भाव मन व द्रव्यमन (-इन दोनों) की (शरीर से) बहिर्गति का अभाव बताकर, मन की अप्राप्यकारिता है- ऐसा (अब तक) प्रतिपादित किया गया है। किन्तु मन की अप्राप्यकारिता के प्रसंग में 'नानुग्रहोपघाताभावाद् लोचनमिव' (गाथा- 214) इत्यादि द्वारा 'अनुग्रह-उपघात-अभाव' (को) हेतु (रूप में) कहा गया था, उसमें परपक्षी (विरोधी) 'असिद्ध' दोष की उद्भावना कर रहा है // 219 // नज्जइ उवघाओ से दोबल्लोरक्खयाइलिंगेहिं।। जमणुग्गहो य हरिसाइएहिं तो सो उभयधम्मो // [(गाथा-अर्थ : (मन में) उदुर्बलता, हृदय-क्षति (हृदयरोग) आदि चिन्हों से यह ज्ञात होता है कि मन का उपघात होता है। (इसी तरह) हर्ष आदि लक्षणों से उस पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) भी होता है (-यह ज्ञात होता है)। इसलिए वह (मन) (उपघात व अनुग्रह -इन) दोनों धर्मों वाला है।] व्याख्या:- (तस्य) उस मन का, जब वह किसी मृत्युग्रस्त या नष्ट व्यक्ति (या पदार्थों) की चिन्ता करता है, और अत्यधिक आर्तध्यान व रौद्रध्यान में प्रवृत्त होता है, (तब) उपघात (होता हैऐसा) ज्ञात होता है। (प्रश्न-) किन (चिन्हों) के आधार पर? उत्तर दिया- (दौर्बल्य-उरःक्षतादिलिङ्गैः)। दुर्बलता यानी देह का क्षीण होना, उरःक्षत यानी छाती का रोग या हृदय-सम्बन्धी पीड़ा आदि। 'आदि' शब्द से (यहां) वायुप्रकोप व विकलता (हवा मार जाना, पक्षाघात, लकवा होना) आदि रोग भी परिगृहीत हैं। (अनुग्रहश्च यत्) चूंकि उस (मन) को, जब वह इष्ट जन के संगम का, तथा वैभव की प्राप्ति आदि पदार्थों के विषय में चिन्तन करता है, तब जो हर्ष आदि होते हैं- उनके आधार पर (मन का) 'अनुग्रह' (भी) होता है- ऐसा अनुमान होता है। उस स्थिति में मुख का खिलना, रोमांच होना -- विशेषावश्यक भाष्य --- ---- 321 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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