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________________ अथैतां स्वाभिमतां धारणां व्यवस्थाप्य परं प्रत्याह तं इच्छंतस्स तुहं वत्थूणि य पंच, नेच्छमाणस्स। किं होउ सा अभावो भावो नाणं व तं कयरं? // 190 // [संस्कृतच्छाया:- तामिच्छतस्तव वस्तूनि च पञ्च, नेच्छतः। किं भवतु साऽभावो भावो ज्ञानं वा तत् कतरत्? // ] अस्मदभिमतामनन्तरप्रतिष्ठितस्वरूपां तां धारणामिच्छतस्तव पञ्च वस्तूनि- पञ्चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानभेदाः प्राप्नुवन्ति। अपायस्यैकस्याऽपि भेदद्वयरूपताभ्युपगमेन भेदचतष्टयस्य त्वयाऽपि पूरितत्वात्, पञ्चमस्य तु मदुक्तस्य धारणालक्षणस्य प्रसङ्गादिति भावः। अथास्मदभ्युपगता धारणा त्वया नेष्यते, तर्हि 'नेच्छमाणस्स किं होउ इत्यादि'। तां मदभ्युपगतां धारणामनिच्छतोऽप्रतिपद्यमानस्य तव सा मदभ्युपगता धारणा किं भवतु-अभावो-अवस्तु, आहोस्विभावो- वस्तु? इति विकल्पद्वयम्। किञ्चात:? न तावदभावः, भावत्वेनाऽनुभूयमानत्वात्। न च तथाऽनुभूयमानस्याऽभावत्वमाधातुं शक्यते, अतिप्रसङ्गात्- घटादिष्वपि तथात्वप्राप्तेः; तेऽपि ह्यनुभववशेनैव भावरूपा व्यवस्थाप्यन्ते। यदि चाऽनुभवोऽप्यप्रमाणम्, तदा घटादिष्वपि भावरूपतायामनाश्वास इति भावः। सद्भाव से मति की त्रिविधता नहीं, अपितु चतुर्विधता ही (अखण्डिता) रहती है- यह निष्कर्ष है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 188-189 // अब अपने मत के अनुरूप 'धारणा' को व्यवस्थापित कर, आचार्य अन्यमतवादी को कह रहे हैं // 190 // तं इच्छंतस्स तुहं वत्थूणि य पंच, नेच्छमाणस्स। किं होउ सा अभावो भावो नाणं व तं कयरं? // [(गाथा-अर्थ :) हमारे द्वारा अभीष्ट उस (धारणा) को आप अंगीकार करें तो आपके मत में (आभिनिबोधिक ज्ञान के) पांच भेद हो जाएंगे। और (उसे) नहीं अंगीकार करें तो धारणा क्या होगी? वह अभावरूप होगी या भाव रूप? यदि भावरूप है तो वह ज्ञान रूप है या अज्ञान रूप? यदि ज्ञान रूप है तो कौन सा (ज्ञान) है?] ___ व्याख्याः - हम अपनी मान्य धारणा का स्वरूप पूर्व में प्रतिष्ठित कर चुके हैं। उस धारणा को आप (अंगीकार करना) चाहें तो आपके मत में आभिनिबोधिक ज्ञान के पांच वस्तु (भेद) हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि आपने अपाय के दो भेद स्वीकार कर (कुल) चार भेदों की तो आपने भी पूर्ति कर ही ली है, अब, हमने जो धारणा का लक्षण बताया है, उसे (मतिज्ञानों में समाहित करने हेतु) पंचम भेद के रूप में मानना पड़ेगा। चलो, हमारे द्वारा अभीष्ट धारणा को यदि आप नहीं स्वीकार करते, तब (नेच्छतः किं भवतु), जिस धारणा को हम मानते हैं, उसे नकारने से या प्रतिपादित न करने से आपके मत में हमारी अभीष्ट धारणा का क्या होगा? (इस पर विचार करें तो) अब आपके सामने दो ही विकल्प खुले हैं, या 80 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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