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________________ अथ भावोऽसौ, तर्हि वक्तव्यम्- ज्ञानम्, अज्ञानं वा?। न तावदज्ञानम्, चिद्रूपतयाऽनुभूयमानत्वात् / अथ ज्ञानम्, तदपि मति-श्रुताऽवधि-मन:पर्याय-केवलेभ्यो ज्ञानान्तरस्याऽभावात् तेषां मध्ये कतमत्? इति वाच्यम्। न तावत् श्रुतादिचतुष्टयरूपम्, अनभ्युपगमात्, तल्लक्षणाऽयोगाच्च। मतिज्ञानं चेत्, तदपि नाऽवग्रहेहाऽपायरूपम्, तल्लक्षणासंभवात्, 'नणु साऽवायब्भहिया' इत्यादिनाऽपायाभ्यधिकत्वेन साधितत्वाच्च। तस्मादन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निश्चयः सर्वोऽप्यपायः, अविच्युति-स्मृति-वासनारूपा तु पारिशेष्यद्वारेणैव, इति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१९०॥ तदेवं निरुत्तरीकृतोऽप्यविलक्षिततयाऽन्येन प्रकारेणाह तुझं बहुयरभेया भणइ मई होई धिइबहुत्ताओ। भण्णइ न जाइभेओ इट्ठो मज्झं जहा तुझं॥१९१॥ तो वह आपके मत में अभाव रूप या अवस्तु रूप होगी अथवा भावरूप या वस्तुरूप होगी। (प्रश्न-) इसमें (दोष) क्या हुआ? (कहते है-) अभाव तो आप मान नहीं सकते, क्योंकि उसकी भाव रूप में अनुभूति (प्रतीति) होती है। यदि अनुभूयमान पदार्थ का भी अभाव मानने लगें तो घटादि का भी अभाव माना जाना लगेगा और इस प्रकार (जिस किसी सद्भूत पदार्थ के भी अभाव रूप दोष होने का) अतिप्रसंग होने लगेगा। भाव यह है कि चूंकि उन घटादि पदार्थों को अनुभूति के आधार पर ही भाव रूप मानने की व्यवस्था (सर्वत्र मान्य) है और यदि अनुभव को ही प्रमाण नहीं मानेंगे तो घटादि की भी भावरूपता निराधार हो जाएगी। यदि उस ('धारणा') को भावरूप मानते हैं तो यह बताएं कि वह ज्ञान रूप है या अज्ञान रूप है? अज्ञान रूप तो आप उसे कह नहीं सकते क्योंकि उसकी 'चिद्रूप' (चैतन्यधर्मात्मक रूप में) अनुभूति होती है। यदि वह ज्ञान रूप है तो यह बताएं कि मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय व केवल - इन पांच से भिन्न कोई (छठा) ज्ञान तो है नहीं, तो इन पांच ज्ञानों में वह (धारणा) कौन सा ज्ञान है? श्रुत (अवधि, मनःपर्यय व केवल) आदि चार ज्ञानों में तो वह है नहीं, क्योंकि ऐसा आप नहीं और श्रुत आदि ज्ञानों (में से किसी) का भी लक्षण उस (धारणा) में मिलता नहीं। इसके अतिरिक्त, (पूर्व गाथा-189 में) 'ननु सा अपायाभ्यधिका' इत्यादि वाक्य से अपाय से अतिरिक्त उसे सिद्ध भी किया जा चुका है। अतः अन्वय व व्यतिरेक से किया जाने वाला समस्त निश्चय तो 'अपाय' ही इस दृष्टि से अविच्युति, स्मृति, वासना रूप (धारणा) तो उस अपाय से अतिरिक्त या अवशिष्ट (अर्थात् मति के भेदों में अपरिगणित) ही रह जाती है- यह निष्कर्ष है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 190 // . इस प्रकार निरुत्तर कर दिये जाने पर भी निर्व्याकुलता (निर्लज्जता) के साथ अन्य प्रकार से अन्यमतवादी कह रहा है // 191 // तुज्झं बहुयरभेया भणइ मई होई धिइबहुत्ताओ। भण्णइ न जाइभेओ इट्ठो मज्झं जहा तुझं // ----- विशेषावश्यक भाष्य ---- ----- 281 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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