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________________ अत्रोच्यते- यत् तावद् गृहीतग्राहित्वादविच्युतेरप्रामाण्यमुच्यते, तदयुक्तम्, गृहीतग्राहित्वलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वात्, अन्यकालविशिष्टं हि वस्तु प्रथमप्रवृत्ताऽपायेन गृह्यते, अपरकालविशिष्टं च द्वितीयादिवारा-प्रवृत्ताऽपायेन। किञ्च,स्पष्ट-स्पष्टतर-स्पष्टतमभिन्नधर्मकवासनाजनकत्वादप्यविच्युतिप्रवृत्तद्वितीयाद्यपायविषयं वस्तु भिन्नधर्मकमेव, इति कथमविच्युतेर्गृहीतग्राहिता?। स्मृतिरपि पूर्वोत्तरदर्शनद्वयानधिगतं वस्त्वेकत्वं गृह्णाना न गृहीतग्राहिणी। न च वक्तव्यं कालादिभेदेन भिन्नत्वाद् वस्तुनो नैकत्वम्, कालादिभिर्भिन्नत्वेऽपि सत्त्व-प्रमेयत्व-संस्थानरूपादिभिरेकत्वात्। वासनाऽपि स्मृति-विज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमरूपा, तद्विज्ञानजननशक्तिरूपा चेष्यते। सा च यद्यपि स्वयं ज्ञानरूपा न भवति, - तथापि पूर्वप्रवृत्ताऽविच्युतिलक्षणज्ञानकार्यत्वात्, उत्तरकालभाविस्मृतिरूपज्ञानकारणत्वाच्चोपचारतो ज्ञानरूपाऽभ्युपगम्यते। तद्वस्तुविकल्पपक्षस्त्वनभ्युपगमादेव निरस्तः। तस्मादविच्युति-स्मृति-वासनारूपाया धारणायाः स्थितत्वाद न मतेस्त्रैविध्यम, किन्तु चतुर्धा सेति स्थितम् // इति गाथाद्वयार्थः // 188 // 189 // .. इस (पूर्वोक्त आपत्ति, दोषारोपण) के सम्बन्ध में (प्रत्युत्तर रूप में) हमारा यह कहना है कि जो अपने गृहीतग्राही होने से अविच्युति की अप्रमाणता का निर्देश किया, वह युक्तिसंगत नहीं ठहरता, क्योंकि गृहीतग्राहिता लक्षण रूप हेतु वहां (अविच्युति में) असिद्ध (हेत्वाभास रूप दोष ग्रस्त) है, क्योंकि प्रथम बार में प्रवृत्त अपाय द्वारा जो वस्तु गृहीत है, वह अन्य काल की है, द्वितीय बार प्रयुक्त अपाय द्वारा गृहीत वस्तु अन्य काल की है (इस प्रकार कालकृत वस्तु-भेद होने से गृहीतग्राहिता दोष घटित नहीं होता)। ... दूसरी बात, अविच्युति रूप से प्रवृत्त द्वितीय, तृतीय आदि अपाय की विषय होने वाली वस्तुएं भिन्न-भिन्न धर्म वाली हैं, क्योंकि वे स्पष्ट, स्पष्टतर व स्पष्टतम -इस प्रकार भिन्न-भिन्न धर्मवाली वासनाओं की जनक हैं, अतः अविच्युति की गृहीतग्राहिता कैसे सिद्ध हुई? . स्मृति भी गृहीतग्राहिणी नहीं है, क्योंकि वह पूर्वकालीन व उत्तरकालीन -इस द्विविध दर्शनों के अनधिंगत (अविषयीकृत) वस्तु के एकत्व को ग्रहण करती है। “कालादि की भिन्नता से वस्तु की भिन्नता है, अतः वस्तु का एकत्व नहीं हो सकता” –यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि कालादि की अपेक्षा से वस्तु-भेद होने पर भी सत्त्व, प्रमेयत्व, संस्थान व रूप आदि की दृष्टि से वहां एकत्व है। वासना के विषय में हम मानते हैं कि वह स्मृतिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रूप है और सम्बद्ध विज्ञानोत्पादक शक्ति रूप भी है। वह (स्मृति) यद्यपि स्वयं ज्ञान रूप नहीं है, तथापि पूर्वप्रवृत्त अविच्युति लक्षण ज्ञान से जन्य है और उत्तरकालीन स्मृति रूप ज्ञान की कारण है, अतः उपचारतः उसे ज्ञानरूप भी मानते हैं। सम्बद्ध वस्तु के विकल्प वाला तृतीय पक्ष को तो हम स्वीकार ही नहीं करते, अतः वह (तत्सम्बन्धित दोष) स्वतः निरस्त हो जाता है। इसलिए अविच्युति, स्मृति, वासनारूप धारणा के - ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 279
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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