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________________ अत्राह कश्चित्- नन्वविच्युति-स्मृतिलक्षणौ ज्ञानभेदौ गृहीतग्राहित्वाद् न प्रमाणम्, द्वितीयादिवारा-प्रवृत्ताऽपायसाध्यस्य वस्तनिश्चयलक्षणस्य कार्यस्य प्रथमवारा-प्रवत्तापायेनैव साधितत्वात। न च निष्पादितक्रिये कर्मणि तत्साधनायैव प्रवर्तमानं साधनं शोभा बिभर्ति, अतिप्रसङ्गात्- कुठारादिभिः कृतच्छेदनादिक्रियेष्वपि वृक्षादिषु पुनस्तत्साधनाय तेषां प्रवृत्त्याप्तेः। स्मृतेरपि पूर्वोत्तरकालभाविज्ञानद्वयगृहीत एव वस्तुनि प्रवर्तमानतया कुतः प्रामाण्यम्?। न च वक्तव्यं पूर्वोत्तरदर्शनद्वयाऽनधिगतस्य वस्त्वेकत्वस्य ग्रहणात् स्मृतिः प्रमाणम्, पूर्वोत्तरकालदृष्टस्य वस्तुनः कालादिभेदेन भिन्नत्वात्, एकत्वस्यैवाऽसिद्धत्वादिति। वासना तु किंरूपा? इति वाच्यम्। संस्काररूपेति चेत्। कोऽयं नाम संस्कारः? स्मृति-ज्ञानावरणक्षयोपशमो वा, तज्ज्ञानजननशक्तिर्वा, तद्वस्तुविकल्पो वा? इति त्रयी गतिः। तत्राद्यपक्षद्वयमयुक्तम्, ज्ञानरूपत्वाभावात्, तद्भेदानां चेह विचार्यत्वेन प्रस्तुतत्वात्। तृतीयपक्षोऽप्ययुक्त एव, संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाया इष्टत्वात्, एतावन्तं च कालं तद्वस्तुविकल्पाऽयोगात्। तदेवमविच्युति-स्मृति-वासनारूपायास्त्रिविधाया अपि धारणाया अघटमानत्वात् त्रिधैव मतिः प्राप्नोति, न चतुर्धा // यहां किसी ने (प्रश्न रूप से) कहा- अविच्युति व स्मृति रूप जो ज्ञान के प्रकार हैं, वे गृहीतग्राही होने से प्रमाण (ही) नहीं है। (यहां गृहीतग्राहिता कैसे है- यह बता रहे हैं-) दूसरी बार प्रवृत्त 'अपाय' द्वारा जो वस्तु-निश्चय रूप कार्य किया जाता है, उसे प्रथम बार प्रवृत्त 'अपाय' ने ही कर दिया होता है। जो क्रिया अपना काम (प्रयोजन) निष्पन्न कर चुकी हो तो उसी काम (या प्रयोजन) की सिद्धि हेतु ही (पुनः) प्रवृत्तः होने वाले साधन की कोई शोभा (या महत्ता) नहीं होती, अन्यथा अतिप्रसक्ति दोष आएगा, क्योंकि कुठार आदि से वृक्ष-छेदन क्रिया किये जाने पर भी, उसी क्रिया को करने के लिए उन्हीं (कुठारादि) की पुनः-पुनः प्रवृत्ति (अपेक्षित) होती रहेगी। स्मृति जिस वस्तु को लेकर प्रवृत्त होती है, वह पूर्वकालीन व उत्तरकालीन- इस द्विविध ज्ञान से गृहीत ही होती है, अतः उसकी प्रमाणता कैसे संगत है? यदि ऐसा कहो कि 'स्मृति इसलिए प्रमाण है, क्योंकि वह दोनों ज्ञानों के एकत्व को ग्रहण करती है जिसे पूर्वकालीन व उत्तरकालीन -दोनों ज्ञान ग्रहण नहीं कर पाते' तो यह कथन भी समीचीन नहीं, क्योंकि पूर्वदृष्ट व पश्चादृष्ट -दोनों वस्तुएं कालादि की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न हैं, अतः दोनों में एकत्व असिद्ध है। (और फिर) वासना (का) भी आप क्या स्वरूप (मानते) हैं? वह संस्कार रूप है- ऐसा मानते हैं तो पहले यह बताएं कि 'संस्कार' क्या है? वह स्मृतिज्ञानावरणक्षयोपशम रूप है, या स्मृतिज्ञानोत्पादक शक्ति है या सम्बद्ध वस्तु-विषयक कोई विकल्प है? इन तीनों विकल्पों में से ही आपको संस्कार का एक स्वरूप मानना पड़ेगा, और कोई दूसरा रास्ता नहीं। इनमें (ज्ञानावरणक्षयोपशम रूप तथा स्मृति-ज्ञानोत्पादनशक्ति रूप) प्रथम व द्वितीय पक्ष तो असंगत हैं, क्योंकि उनमें ज्ञानरूपता नहीं है, किन्तु यहां ज्ञानसम्बन्धी भेदों का ही विचार चल रहा है (अतः वे दोनों पक्ष अविचारणीय ठहरते हैं)। (सम्बन्धित वस्तु-विषयक विकल्प मानने का) तृतीय पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं, क्योंकि वासना का सद्भाव संख्येय व असंख्येय काल तक अभीष्ट (माना गया) है और इतने समय तक वस्तु-सम्बन्धी विकल्प (का ठहरना) सम्भव नहीं। इस प्रकार, अविच्युति, स्मृति, वासना-इन तीनों प्रकार की धारणाओं के घटित न होने से, मति के तीन ही भेद प्रसक्त होते हैं, चार नहीं। a 278 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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