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________________ अत्रोतरमाह- 'भण्णईत्यादि'। भण्यतेऽत्र प्रतिविधानम्। किम्?, इत्याह- 'इदं वस्तु तदेव यत् प्रागुपलब्धं मया' इत्येवंभूता कालान्तरे या स्मृतिरूपा बुद्धिरुपजायते। नन्विह सा पूर्वप्रवृत्तादपायाद् निर्विवादमभ्यधिकैव, पूर्वप्रवृत्ताऽपायकाले तस्या अभावात् / सांप्रतापायस्य तु वस्तुनिश्चयमात्रफलत्वेन पूर्वापरदर्शनानुसंधानाऽयोगात्। ततश्च साऽनन्यरूपत्वाद् धृतिर्धारणा नामेति पर्यन्ते संबन्धः। यतश्च यस्माच्च वासनाविशेषात्- पूर्वोपलब्धवस्त्वाहितसंस्कारलक्षणात् तद्विज्ञानावरणक्षयोपशमसान्निध्यादित्यर्थः, सा'इदं तदेव' इतिलक्षणा स्मृतिर्भवति।साऽपि वासनाऽपायादभ्यधिकेति कृत्वा धृतिर्नाम, इतीहापि संबन्धः। 'जा याऽवायेत्यादि'। या चाऽपायादनन्तरमविच्युतिः प्रवर्तते, साऽपि धृतिर्नाम। इदमुक्तं भवति- यस्मिन् समये 'स्थाणुरेवाऽयम्' इत्यादिनिश्चयस्वरूपोऽपायः प्रवृत्तः, ततः समयादूर्ध्वमपि स्थाणुरवाऽयम्' इत्यविच्युता याऽन्तर्मुहूर्त क्वचिदपायप्रवृत्तिः साऽप्यपायाऽविच्युतिः प्रथमप्रवृत्तापायादभ्यधिकेति धृतिर्धारणा नामेति। एवमविच्युतिवासना-स्मृतिरूपा धारणा विधा सिद्धा भवति॥ इसलिए वहां भी धृति या धारणा सम्भव नहीं। इसके बाद भी, उस उपयोग की उपरति होने पर भी, पुनः धारणा का पूर्वोक्त रीति से ही अभाव रहेगा। इस प्रकार, उपयोग-काल में अन्वयमुखी अवधारण रूप धारणा का होना आप मानते नहीं, उपयोग की उपरति में मति उपयोग ही नहीं रहता तो उसकी अंश रूपी धारणा भी घटित नहीं होगी, अतः आपके अभिप्राय से मति के तीन ही प्रकार प्राप्त होते हैं, न कि चार भेद -यह पूर्वपक्ष का अभिप्राय है। .. अब पूर्वपक्ष का उत्तर दे रहे हैं- (भण्यते)। हमारी ओर से प्रत्युत्तर इस प्रकार है। क्या उत्तर है? कह रहे हैं- 'यह वस्तु नहीं है, जिसे मैंने पहले उपलब्ध की थी' इस प्रकार की स्मृति रूप बुद्धि कालान्तर में उत्पन्न होती है (अतः धारणा के होने से मति चतुर्विध ही होगी)। निश्चय ही वह (बुद्धि) पूर्वप्रवृत्त 'अपाय' की अपेक्षा से निर्विवाद रूप से अधिक (अतिरिक्त) ही है, क्योंकि पूर्वप्रवृत्त अपाय के समय उसका अभाव है। जब अपाय हो रहा होता है, तो वह वस्तु-निर्णय रूप में फलित (सार्थक) हो जाता है, वह पूर्वकालीन व अनन्तरकालीन -दोनों दर्शनों को जोड़ने का काम नहीं करता। वह बुद्धि पूर्वापरदर्शन-अनुसंधान से भिन्न कुछ नहीं होती। इस वाक्य की पूर्ति गाथा में आए 'सा धृतिर्नाम' वाक्य से करनी चाहिए, अतः अर्थ हुआ कि उस बुद्धि का (ही) धृति या धारणा नाम है। (यतश्च-) (उक्त कथन में युक्ति यह है कि) चूंकि 'यह वही है' -इस प्रकार की जो स्मृति होती है, वह वासना विशेष रूप ही है, वह वासना अपाय से कुछ अतिरिक्त है, इसलिए उसका (ही) धृति या धारणा नाम है। (या वा अपायाभ्यधिका-) अपाय होने के बाद जो उसकी अविच्युति (निरन्तरता) प्रवर्तमान रहती है, वह भी धृति या धारणा ही है। तात्पर्य यह है कि जिस समय 'यह वृक्ष ही है' इस प्रकार का निश्चयात्मक 'अपाय' हुआ, उसके बाद भी, अन्तर्मुहूर्त तक 'यह वृक्ष ही है' इस प्रकार अविच्युति (निरन्तरता) रूप अपाय-प्रवृत्ति होती रहती है, वह भी प्रथम प्रवृत्त अपाय से अतिरिक्त होने से धृति या धारणा है। इस प्रकार (1) अविच्युति, (2) वासना (3) स्मृति -इन तीन प्रकारों वाली धारणा (का सद्भाव) सिद्ध है। - ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------277
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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