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________________ [संस्कृतच्छाया:- काऽनुपयोगे धृतिः, पुनरुपयोगे च सा यतोऽपायः। ततो नास्ति धृतिर्भण्यते इदं तदेवेति या बुद्धिः॥ .. ननु साऽपायाऽभ्यधिक यतश्च वासनाविशेषात् / या चाऽपायानन्तरमविच्युतिः सा धृतिर्नाम॥] अनुपयोगे उपयोगोपरमे सति का धृतिः- का नाम धारणा? न काचिदित्यर्थः / इदमुक्तं भवति- इह तावद् निश्चयोपायमुखेन . घटादिके वस्तुनि अवग्रहे हाउपायंरूपतयाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाण एवोपयोगो जायते। तत्र चाऽपाये जाते या उपयोगसानत्यलक्षणाऽविच्युतिर्भवताऽभ्युपगम्यते, साऽपाय एवाऽन्तर्भूता, इति न ततो व्यतिरिक्ता। या तु तस्मिन् घटाधुपयोगे उपरते सति संख्येयमसंख्येयं वा कालं वासनाऽभ्युपगम्यते, 'इदंतदेव' इतिलक्षणा स्मृतिश्चाङ्गीक्रियते, सा मत्यंशरूपा धारणा न भवति, मत्युपयोगस्य प्रागेवोपरतत्वात्। पुनरपि कालान्तरोपयोगे धारणा भविष्यतीति चेत्, इत्याह- 'पुणो इत्यादि'। कालान्तरे पुनर्जायमानोपयोगेऽपि याऽन्वयमुखोपजायमानाऽवधारणरूपा धारणा मयेष्यते, सा यतोऽपाय एव भवताऽभ्युपगम्यते 'सव्वो वि य सोऽवाओ' इत्यादिवचनात्; ततस्तत्रापि नास्ति धृतिर्धारणा, पुनरप्युपयोगोपरमेऽपि पूर्वोक्तयुक्त्यैव वः; तस्मादुपयोगकालेऽन्वयमुखाऽवधारणरूपाया धारणायास्त्वयाऽनभ्युपगमात्, उपयोगोपरमे च मत्युपयोगाभावात्, तदंशरूपाया धारणाया अघटमानकत्वात् त्रिधैव भवदभिप्रायेण मतिः प्राप्नोति, न चतुर्धा, इति पूर्वपक्षाभिप्रायः॥ [(गाथा-अर्थ :) अनुपयोग की स्थिति में (अर्थात् अपाय हो जाने से उपयोग की उपरति हो जाने पर) धृति (धारणा) की स्थिति कहां रही? पुनः उपयोग होने पर भी धारणा नहीं होगी, क्योंकि 'अपाय' (के रूप में) ही वह धारणा (अन्तर्भूत) है। अतः धारणा का अभाव हो गया। (उत्तर-) (बाद में) 'यह वस्तु वही है' -इस प्रकार की जो बुद्धि होती है, वह निश्चय ही पूर्ववर्ती 'अपाय' से कुछ अतिरिक्त है, अतः वही धारणा है, क्योंकि वह विशेष वासना के रूप में उत्पन्न होती है। इसी प्रकार, अपाय के अनन्तर जो अपाय-सम्बन्धी अविच्युति प्रवर्तित होती रहती है, उसका भी नाम (धारणा) है।] व्याख्याः- अनुपयोग यानी उपयोग की उपरति होने पर, कौन-सी धृति या धारणा सम्भावित है? अर्थात् कोई भी धारणा सम्भावित नहीं। तात्पर्य यह है कि घटादि वस्तु में निश्चय तक पहुंचने की प्रक्रिया में ईहा व अपाय रूप अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उपयोग होता है। जब (घट-विषयक) अपाय सम्पन्न (परिपूर्ण) हो गया, तब उक्त उपयोग की निरन्तरता रूप जिस 'अविच्युति' का होना आप स्वीकारते हैं, वह (तो) अपाय में अन्तर्भूत है, अतः वह 'अपाय' से अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। घटादि उपयोग के उपरत (सम्पन) होने पर जो संख्येय या असंख्येय काल वाली जिस वासना का सद्भाव आप मानते हैं, वह 'वह यही है' इस रूप में होने वाली स्मृति के रूप में स्वीकृत है, अतः वह भी मति ज्ञान का अंश रूप धारणा (इसलिए) नहीं हा सकती, क्योंकि मति-उपयोग तो पहले ही उपरत (परिपूर्ण) हो चुका। यदि ऐसा कहें कि पुनः कालान्तर में उपयोग होने पर धारणा हो सकती है तो इसके प्रत्युत्तर में कहा-- (पुनः उपयोगे)। (अर्थात्) कालान्तर में उपयोग होने पर भी 'अन्वय' के आधार पर होने वाली अवधारणा- जो हमें धारणा रूप से अभीष्ट है, उसे तो आपने (पूर्व गाथा-187 में) 'सास्त अवधारणात्मक अत्यवसाय अपाय ही है' -कथन से 'अपाय' में ही समाविष्ट कर लिया है, -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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