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________________ [संस्कृतच्छाया:- मङ्गलत्रिकान्तरालं न मङ्गलमिहार्थतः प्रसक्तं ते। यदि वा सर्वं शास्त्रं मङ्गलमिह किं त्रिकग्रहणम्?] ' इह मङ्गलविचारप्रक्रमे, अर्थतोऽर्थापत्त्या एतत् ते तव आचार्य ! प्रसक्तं प्राप्तम्। किं तत्?, इत्याह- मङ्गलानामादिमध्याऽवसानलक्षणं त्रिकं मङ्गलत्रिकं तस्याऽन्तरालद्वयलक्षणमन्तरालं न मङ्गलमिति। यदा हि 'तं मंगलमाईए मज्झे पजंतए य सत्थस्स' इत्यादिवचनादादिमध्यावसानलक्षणेषु त्रिष्वेव नियतस्थानेषु मङ्गलमुपादीयते, तदा तदव्याप्तमन्तरालद्वयमर्थापत्त्यैवाऽमङ्गलं प्राप्नोतीति भावः। पर एवाह- यदि वा सिद्धान्तवादिन् ! एवं ब्रूयास्त्वं यदुत- सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति प्रागेवोक्तम्, अतः किमेवं प्रेर्यते?।। हन्त! तर्हि 'तं मंगलमाईए' इत्यादिना किमिह मङ्गलत्रिकग्रहणं कृतम्? न हि सर्वस्मिन्नपि शास्त्रे मङ्गले 'आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलम्' इत्युच्यमानं युक्तियुक्तत्वमनुभवति। तस्मादपान्तरालद्वयस्योऽमङ्गलत्वं वा प्रतिपद्यस्व, मङ्गलत्रयग्रहणं वा मा कृथा इति भावः॥ इति गाथार्थः॥१८॥ __ [(गाथा-अर्थः) (आपके मत में तो) अर्थापत्ति (रूप प्रमाण) से यह प्रकट होता है कि तीन मङ्गलों का अन्तराल (मध्यवर्ती स्थान) मङ्गलरूप नहीं है। यदि समस्त शास्त्र मङ्गलरूप है तो फिर तीन-तीन मङ्गलों का ग्रहण (व्याख्यान) क्यों किया जाता है?] व्याख्याः- मङ्गल-सम्बन्धी विचार के प्रसङ्ग में, हे आचार्यप्रवर! अर्थतः यानी अर्थापत्ति द्वारा आपके कथन से यह प्रकट होता है। क्या प्रकट होता है? इसके (उत्तर के) लिए कहा- यह प्रकट होता है कि आदिमङ्गल, मध्यमङ्गल और अन्त्यमङ्गल- इन तीन मङ्गलों के अन्तराल (मध्यवर्ती स्थान) मङ्गलरूप नहीं हैं (क्यों कि वहां मङ्गल नहीं किया गया है)। जब आप 'तत् मङ्गलमादौ' (गाथा-13) इत्यादिवचनों से आदि, मध्य व अन्त्य-इन तीनों ही नियत स्थानों में मङ्गल का विधान करते हैं, तब उन मङ्गलों से अव्याप्त (अस्पृष्ट भाग) बीच के दोनों अन्तराल की अमङ्गलता अर्थापत्ति से सिद्ध हो जाती है- यह तात्पर्य है। आक्षेपकर्ता ही (आगे) कह रहा है- हे सिद्धान्तवादी! यदि आप ऐसा कहें कि समस्त शास्त्र ही मङ्गल है- यह पहले कह चुके हैं, अतः शंका क्यों कर रहे हो? तो हमारा (आक्षेपकर्ता का) यह कहना है- फिर तो और भी खेद की बात है कि फिर आपने 'मङ्गलमादौ' इत्यादिवचन से तीन प्रकार के मङ्गलों का ग्रहण (कथन) क्यों किया है? क्योंकि समस्त शास्त्र यदि मङ्गलरूप है तो आदि, मध्य व अन्त में मङ्गल किया जाना चाहिए- यह (आपका) कथन युक्तियुक्त नहीं ठहरता। इसलिए, या तो (मध्यवर्ती) दोनों अन्तरालों की अमङ्गलता को स्वीकार करो, या फिर तीन मङ्गलों का कथन मत करो- यह (आक्षेपकर्ता का) तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 18 // Na 42 -------- विशेषावश्यक भाष्य -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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