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________________ शास्त्रादर्थान्तरे भेदवत्यपि मङ्गलेऽभ्युपगम्यमाने सति नाऽमङ्गलता शास्त्रस्य, नाऽप्यनवस्था। कुत:?, इत्याह- यस्मात् स्व-परानुग्रहकारि मङ्गलम्, प्रदीपवत्- यथा हि प्रदीप आत्मानं प्रकाशयमानः स्वस्याऽनुग्राहको भवति,गृहोदरवर्तिनस्तु घटपटाद्यर्थानाविष्कुर्वाणः परेषामनुग्राहकः संपद्यते, नतु स्वप्रकाशे प्रदीपान्तरमपेक्षते;यथा च लवणं रसवत्यामात्मनि च सलवणतामुपदर्शयत् स्वपरानुग्राहकं भवति, न त्वात्मानः सलवणतायां लवणान्तरमपेक्षते। एवमर्थान्तरभूतं मङ्गलमपि निजसामर्थ्याच्छास्त्रे स्वात्मनि च मङ्गलतां व्यवस्थापयत् स्वपरानुग्राहकं भवति / ततो मङ्गलाद् मङ्गलरूपताप्राप्तौ शास्त्रस्य तावद् वाऽमङ्गलता। यदा च मङ्गलमात्मनो मङ्गलरूपतायां मङ्गलान्तरं नापेक्षते, तदाऽनवस्थाऽपि दूरोत्सारितैव // इति गाथार्थः // 17 // पुनरन्यथा परः प्रेरयति मंगलतियंतरालं न मंगलमिहत्थओ पसत्तं ते। जइ वा सव्वं सत्थं मंगलमिह किं तियग्गहणं?॥१८॥ करता है, उसी प्रकार.मङ्गल भी (स्वयं के लिए तथा शास्त्र के लिए भी) मङ्गलरूप होकर अनुग्रहकारी होता है। व्याख्याः- शास्त्र से मङ्गल को एक भिन्न व पृथक् पदार्थ स्वीकार करने पर भी, न तो शास्त्र की अमङ्गलता और न ही अनवस्था (का दोष) सम्भावित है। (प्रश्न-) यह कैसे? (इसके उत्तर में) कह रहे हैं- चूंकि मङ्गल (लोक-प्रयुक्त) प्रदीप की तरह, स्व व पर का अनुग्रह करता है, अर्थात् जैसे दीपक स्वयं को प्रकाशित करता हुआ 'स्व' का अनुग्रह तो करता ही है, साथ ही घर के अन्दर विद्यमान घट, पट आदि पदार्थों को प्रकट करता हुआ पर-पदार्थों का भी अनुग्रह करता है, और वह / स्वयं को प्रकाशित करने में किसी अन्य दीपक की अपेक्षा भी नहीं रखता है, इसी प्रकार जैसे लवण स्वयं के नमकीनपने को तो प्रकट करता ही है, साथ ही रसोई (में बने पदार्थों) को भी नमकीन बनाता हुआ स्व और पर-दोनों का अनुग्रह करता है, और अपने नमकीनपन के लिए किसी अन्य लवण की अपेक्षा भी नहीं रखता / उसी प्रकार, मङ्गल (शास्त्र से पृथक् होता हुआ) भी स्व-सामर्थ्य से स्वकीय मङ्गलता और शास्त्र की मङ्गलता -दोनों को निष्पन्न करता हुआ, स्व-पर दोनों का अनुग्रहकर्ता होता है। इसलिए, मङ्गल से शास्त्र की मङ्गलता मानने में शास्त्र की अमङ्गलता (सिद्ध) नहीं हो पाती। जब मङ्गल स्वकीय मङ्गलता में अन्य मङ्गल की अपेक्षा नहीं रखता, तो अनवस्था (रूपकल्पना या सदोषता) तो दूर ही रह जाती है। यह गाथा का अर्थ हुआ // 17 // (त्रिविध मङ्गलग्रहण क्यों?) अब, आक्षेपकर्ता पुनः अन्य प्रकार से (आचार्य के समक्ष) दोष प्रदर्शित कर रहा है (18) मङ्गलतियंतरालं न मङ्गलमिहत्थओ पसत्तं ते। जइ वा सव्वं सत्थं मङ्गलमिह किं तियग्गहणं॥ ------- विशेषावश्यक भाष्य - - - - - - - -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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