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________________ आचार्यः प्राह सत्थे तिहा विहत्ते तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो? सव्वं च निजरत्थं सत्थमओऽमंगलमजुत्तं // 19 // [संस्कृतच्छाया:- शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तदन्तरालपरिकल्पनं कुतः?। सर्वं च निर्जरार्थं शास्त्रमतोऽमङ्गलमयुक्तम्॥] .. बुद्ध्या शास्त्रे त्रिधा विभक्ते तस्य शास्त्रस्यान्तरालं तदन्तरालं तस्य परिकल्पनं कुतः संभवति? - न कुतश्चिदित्यर्थः। यथा हि संपूर्णे मोदकादिवस्तुनि त्रिखण्डे विकल्पितेऽन्तरालं न संभवति, तथाऽत्रापि, इति कस्याऽमङ्गलता स्यात्? इति / यदि नाम शास्त्रं त्रिधा विभक्तम्, तथापि कथं तस्य सर्वस्याऽपि मङ्गलता? इत्याह- सर्वं चावश्यकादि शास्त्रं निर्जरार्थ कर्मापगमरूपा निर्जरा अर्थ: प्रयोजनमस्येति निर्जरार्थम्, तथा च सति तपोवत् स्वयमेव मङ्गलमिदमिति सामर्थ्याद् गम्यते। यदि नाम निर्जरार्थत्वात् तपोवत् स्वयमेवाऽऽवश्यकादिशास्त्रं मङ्गलम्, ततः किम्?, इत्याह- अतोऽमङ्गलमयुक्तम्, यतः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलम्, अतो मङ्गलात्मनि तस्मिंस्त्रिधा विभक्ते यदुच्यते 'अपान्तरालद्वयममङ्गलम्' तदयुक्तमित्यर्थः / यदि हि शास्त्रं .. (आक्षेपकर्ता द्वारा उठाई गई आपत्तियों के समाधान हेतु) आचार्य (भाष्यकार जिनभद्रगणी) कह रहे हैं (19) सत्थे तिहा विहत्ते, तदन्तरालपरिकप्पणं कत्तो। सव्वं च निज्जरत्थं सत्थमओऽमङ्गलमजुत्तं // [(गाथा-अर्थः) शास्त्र के तीन विभाग करने में, उनके अन्तराल की परिकल्पना कहां से आगई? चूंकि समस्त शास्त्र (कर्मों की) निर्जरा का हेतु होता (हुआ मङ्गलरूप होता) है, इसलिए उसकी (किसी भी भाग में) अमङ्गलता युक्तियुक्त नहीं है।] '. ' व्याख्याः- बुद्धि (कल्पना) से शास्त्र को तीन भागों में विभक्त करने से, उनके अन्तराल की कल्पना किस प्रकार कर ली गई? अर्थात् किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है। जिस प्रकार, मोदक आदि समग्र वस्तु को तीन खण्डों में विभक्त करने पर, अन्तराल का अस्तित्व सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिए। अतः (अन्तराल के ही अभाव में) किस की अमङ्गलता होगी? आप (प्रतिवादी या आक्षेपकर्ता) का (पुनः) प्रश्न होगा कि भले ही शास्त्र को (काल्पनिक रूप से) तीन भागों में बांटा है तो भी उस समग्र शास्त्र की मङ्गलता किस प्रकार से है? तो इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर रहे हैं- सर्वं च / (अर्थात्) समस्त आवश्यक आदि शास्त्र निर्जरा-हेतुक हैं। निर्जरा यानी कर्मों का क्षय, वही उन (शास्त्रों) का प्रयोजन है। इस दृष्टि से, जिस प्रकार 'तप' स्वयं ही मङ्गलरूप है, उसी तरह वह (समग्र शास्त्र) भी मङ्गलरूप है- यह पूर्वोक्त कथन में अन्तर्निहित सामर्थ्य से ज्ञात होता है। यदि (कोई आक्षेपकर्ता कहे कि) शास्त्र को निर्जराहेतुक बता कर आप आखिर क्या कहना चाहते हैं? तो इसका उत्तर यह है- अमङ्गलम् अयुक्तम् / अर्थात्, चूंकि समस्त शास्त्र ही मङ्गलरूप है, ra---------- विशेषा ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 43 EE.
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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