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________________ शास्त्रादावश्यकादेरर्थान्तरभूते भेदवति मङ्गले उपादीयमाने भवेद् घटेत परेण विधीयमाना 'मंगलकरणा सत्थं न मंगलं' इत्यादिका कल्पना दोषोत्प्रेक्षालक्षणा, शास्त्रे त्वावश्यकादिके परममङ्गलस्वरूपेऽभ्युपगम्यमाने, तद्भिन्ने मङ्गले चाऽनुपादीयमाने हन्त किममङ्गलम् का वाऽनवस्था त्वया प्रेर्यते? / तस्मादाकाशरोमन्थनमेव परस्य दोषोद्भावनमिति भावः। आह- यदि शास्त्रं स्वयमेव मङ्गलम्, तर्हि तं मंगलमाईए' इत्यादिवचनात् मङ्गलं तत्र किमित्युपादीयते? / सत्यम्, किन्तु 'सीसमइमंगलपरिग्गहत्थमेत्तं तदभिहाणं' इत्यादिना वक्ष्यते सर्वमत्रोत्तरम्, मा त्वरिष्ठाः // इति गाथार्थः॥१६॥ अथ समर्थवादितयाऽर्थान्तरभूतत्वमपि मङ्गलस्याऽभ्युपगम्य समर्थयन्नाह अत्थतरे वि सइ मंगलम्मि नामंगला-ऽणवत्थाओ। स-पराणुग्गहकारि पईव इव मंगलं जम्हा॥१७॥ [संस्कृतच्छाया:- अर्थान्तरेऽपि सति मङ्गले नामङ्गलानवस्थे। स्वपरानुग्रहकारि प्रदीप इव मङ्गलं यस्मात्॥] . व्याख्याः- यदि आवश्यक आदि शास्त्र से मङ्गल को एक भिन्न और पृथक् पदार्थ माना जाता तभी प्रतिवादी (या आक्षेपकर्ता) द्वारा प्रस्तुत की गई 'शास्त्र मङ्गलरूप नहीं है, क्योंकि उसके लिए 'मङ्गल' किया जाता है'-यह दोष-प्रदर्शक कल्पना संगत होती, किन्तु आवश्यक आदि शास्त्र को परममङ्गलस्वरूप मानने पर, और इसके लिए इससे पृथक् कोई अन्य मङ्गल उपादेय नहीं है- ऐसा स्वीकार करने पर, किसकी अमङ्गलता और कौन-सी अनवस्था यहां सम्भावित है? (अर्थात् असम्भव है)। इसलिए, आक्षेपकर्ता द्वारा जो दोष प्रदर्शित किया गया है, वह आकाश को चबाने या जुगाली करने जैसा निरर्थक है, अर्थात् यह दोष-प्रदर्शन भी निराधार, निरर्थक है)- यह तात्पर्य है। अब, शंकाकार (आक्षेपकर्ता) पुनः शंका प्रस्तुत करता है (या उसकी ओर से शंका प्रस्तुत की जा रही है):- यदि शास्त्र स्वयं मङ्गलरूप है, तो 'तत् मङ्गलमादौ' (गाथा-13 में) इत्यादिकथन द्वारा उसके लिए मङ्गल का विधान क्यों किया जाता है? (उत्तर-) (आपकी जिज्ञासा) सही है। किन्तु (हमारा कहना है-) शिष्य-मतिमङ्गलपरिग्रहार्थम् / अर्थात् शिष्य की बुद्धि में यह बात बैठ जाय कि शास्त्र की मङ्गलरूपता है, इसलिए मङ्गल का विधान किया गया है। इस प्रकार, पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर आगे (गाथा20 में) दिया जाएगा, आप उतावले न हों। यह गाथा का अर्थ हुआ // 16 // अब, अपने वक्तृत्व-सामर्थ्य के आधार पर मङ्गल को शास्त्र से अर्थान्तरभूत (पृथक् पदार्थ) मान कर (भी, कोई दोष नहीं है-यह सिद्ध करने हेतु) उसका समर्थन कर रहे हैं (17) अत्यंतरे वि सइ मङ्गलम्मि नामङ्गलाणवत्थाओ। सपराणुग्गहकारि पईव इव मङ्गलं जम्हा // [(गाथा-अर्थः) मङ्गल को (शास्त्र से पृथक्) अर्थान्तर मानने पर भी अमङ्गलता व अनवस्था के दोष नहीं होते, क्योंकि जिस प्रकार दीपक स्वयं का तथा अन्य (को प्रकाशित करने) का अनुग्रह Na 40 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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