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________________ * भाषा द्रव्य है-पुद्गल पदार्थ है . * 249. इससे तात्पर्य यह निकला कि हरेक जीवोंको बोलनेके लिए भाषा पुद्गलोंकी अनिवार्य आवश्यकता है। काययोग द्वारा पुद्गल ग्रहण और परिणमन तथा वचनयोग द्वारा भाषा पुद्गलोंका वचनरूपमें निर्गमन समझना। यह बात ऊपर कही गई है / यहाँ बोलती है आत्मा, बोलनेका स्थान है शरीरवर्तीमुख, बोलनेका मुख्य साधन (माध्यम) है भाषावर्गणाके पुद्गल, बोलनेकी शक्ति या व्यापार करानेवाला है वचनयोग, इस व्यापारको व्यक्त करनेका साधन वर्ण-अक्षर हैं। यहाँ यह बात भी समझ लेना कि पुद्गल शब्दकी बात जहाँ आई वहाँ पुद्गलसे एक द्रव्य पदार्थ समझना और उसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अर्थात् रंग, गंध, स्वाद और स्पर्श होते हैं। जैन शास्त्रोंने पुद्गलोंसे क्षीर-नीरकी तरह संमिश्रित भाषाको द्रव्य-पदार्थरूप मानी है। और इस बातका सबूत आजके विज्ञानने साक्षात् करा दी हैं। उसी बात पर हम आवें / भाषा पुद्गलका ही पिण्ड है / इस पिण्डमेंसे भाषाका आविष्करण होता है। अतः ही वैह मूर्त-रूप या आकारवाला है। जैसे शब्द ऐसे पुद्गलके आकार / जो वस्तु पुद्गल रूपमें होती है उसके अनेक स्वभाव होते है। जैसेकि ग्रहण-विसर्जनउपघात, अधः, ऊर्ध्व, तिर्यक्, प्रसरण, वायु और अग्निके संयोगसे ह्रस्व दीर्घ प्रसरण, अल्पाधिक प्रवर्तन आदि आदि / ___ अब जैन शास्त्रोंने शब्दको पुद्गल पदार्थ माना / पदार्थ माना इसलिए कोई चीज-वस्तु बनी। और तब ही उसे फोनोग्राफके रिकार्डमें, टेपरिकार्डमें और बिजलीके तारमें, रेडियोमें, ( मेग्नेट और इलेक्ट्रीसिटी आदिकी मददसे) पकडा जा सका और बोले गए शब्दोंका बरसों तक अस्तित्त्व टिक सका / अस्तु / . भाषाके लिए जैन दर्शन ऐसा कहता है कि भाषा ज्यों ही बोली जाती है कि 541. वर्णके पांच, गंधके दो, रसके छः और स्पर्शके आठ प्रकार हैं / 542. न्यायशास्त्र शब्दको आकाशके गुणरूप मानता है। आकाश अमूर्त-अरूपी है। अतः उसका गुण भी अमूर्त-अरूपी है / ऐसा प्रतिपादन करता है। अगर यह बात सच हो तो, वह आकाशकी तरह सर्वत्र व्याप्त होना चाहिए। लेकिन वैसा देखनेमें नहीं आता। शब्द सर्वत्र नहीं है / श्रोत्रेन्द्रिय दीवार आदिसे उपघात पाती है (रूकती है) और पुद्गलके स्वभाव उसमें देखनेको मिलते हैं / अतः उसे आकाशका गुण मानना असत् है। साथ ही शब्द तो रूपी ही है। अर्थात् आकारवाला. है और रूपीका जन्म अरूपीमेंसे कभी नहीं हो सकता। ऊपरांत शब्दके प्रतिघोष पडते हैं यह बात भी शब्द रूपी है उसे सूचित करता है। बृ. सं. 32
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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