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________________ '.248. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * हो तो मंदोच्चार होता है / लेकिन यह संभाषण बलसे ही शक्य बनता है। पहले समय पर पुद्गलग्रहण, दूसरे समय पर परिणमन और फिर अवलंबन लेने पूर्वक विसर्जनका कार्य होता है। भाषाका व्यापार या बोलनेकी प्रवृत्ति जीवके ही होती है। अजीवके होती ही नहीं / 84 लाख जीवायोनिमेंसे 52 लाखको तो भाषाका योग ही नहीं है, इन जीवोंके मात्र एक 'स्पर्श' इन्द्रिय ही है, रसना-जीह्वा इन्द्रिय ही नहीं होतीं। शेष 32 लाखमेंसे 6 लाख (दो, तीन या चार इन्द्रियवाले ) की भाषा अस्पष्ट है। शेष 26 लाख (लगभग )की स्पष्ट भाषा हो सकती है। यह स्पष्ट भाषा भी भाषापर्याप्तिनामकर्मका तथा अंगोपांगनामकर्मका स्पष्ट उदय वर्तित हो उसे ही होता है / वरना मनुष्य होने पर, जीभके रहने पर भी मंगापन, तोतलापन आदि प्रकारकी क्षतियोंके कारण बोल नहीं सकता, स्पष्ट वद नहीं सकता, न तो व्यवस्थित संभाषण कर सकता / _ भाषाके बारेमें अन्य थोडी विचारणा करें भाषाका व्यवहार मुख द्वारा होता है। इसमें देखनेवालेकी दृष्टिसे तो सहायक रूपमें मुखसे कंठ तकके अवयव दीखते हैं। शायद हम ऐसा समझते हैं कि बोलनेकी क्रियामें मात्र वर्ण, शब्द और मुखादि स्थान ही साधनरूप हैं, और दूसरा नहीं है, तो वह बात बराबर नहीं है। पूर्वोक्त दोनों वस्तुएँ, ऊपरांत जिसके बिना भाषा वन ही न सके वह वस्तु तो है भाषा बोलनेमें उपयोगी, विश्व व्याप्त एक प्रकारके (भाषा योग्य) पुद्गल परमाणु-स्कंध / जैन सिद्धान्तकारोंने समग्र विश्वके संचालनमें आठ प्रकारके परमाणु माने हैं। इन परमाणुओंसे ( अर्थात् उसके स्कंधोंसे ) समस्त विश्व भरा है। और इससे ही विश्वका प्रच्छन्न या प्रकट रूपमें संचालन हो रहा है। इन आठ प्रकारोंमें एक 'भाषा' में उपयोगी हो सके ऐसे परमाणु हैं। ये परमाणु अखिल ब्रह्मांडमें (स्वर्ग-मृत्यु और पाताल आदि ) सर्वत्र व्याप्त हैं। कोई भी जीव जब शब्द बोलनेको तैयार होता है तब तुरंत ही लोहचुंबक जैसे लोहेको ही खिंचता है (अन्यको नहीं) वैसे वह अपने आत्मप्रदेशोंको अवगाहन करके रहे पुद्गलोंको अत्यन्त वेगसे ग्रहण कर लेता है और जिस प्रकारसे बोलना हो उस प्रकारसे ( काययोग द्वारा ) परिणत करता है, और फिर वचनयोगके वलसे गृहीत पुद्गलोंके सहकारसे भाषाका उद्गम होता है। अर्थात् उच्चार करता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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