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________________ * 250. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . तुरंत ही उसके पुद्गल चार ही समयमें (एक सैकन्डके अरबोंवें भागमें) समग्र लोकविश्वके ब्रह्मांडमें व्याप्त हो जाते हैं। लेकिन यहाँ इस प्रश्नको अवकाश मिलता है कि-जो शब्द लोकके एक छोरसे. दूसरे छोर तक (अरबों अरबों मील) में फैलते हैं। वे क्या मूल पुद्गल ही हैं ! शास्त्र कहता है कि नहीं। मूल पुद्गलोंकी गति-बारह योजन (अर्थात् 48 कोस) से अधिक नहीं होती। लेकिन फिर अपनी आवाजकी गतिकी समश्रेणीमें वर्तित पुद्गलोंको मूल पुद्गल स्वयं ही वासित करते जाएँ अर्थात् अपने शब्द संस्कार देते जाएँ और बहुधा तो उन वासित पुद्गलोंके ही शब्द अन्योंको सुनने मिल सकते हैं / रेडियोके द्वारा हजारों मील दूरसे बोले जाते शब्द हजारों मील दूर, जो सुने जाते हैं वे वासित किए पुद्गलोद्भव शब्द ही सुनाई देते हैं। हजारों मनुष्योंके या पशुओंके मुखसे निकलते शब्दोंके पुद्गल विश्वमें सर्वत्र देखते देखते प्रसारित होते ही हैं, अग्नि और वायु दोनों पदार्थ, उन्हें पकडकर ध्वनिरूपमें इच्छित स्थल में, इष्ट दिशामें प्रसारित कर सकते हैं / आजके वैज्ञानिकोंने शब्द ध्वनिकी तरंगोंके रूपमें फेंके जाते हैं यह अनेक रीतोंसे स्पष्ट साबित कर दिया है। अरे ! आज मात्र शब्द ही नहीं, लेकिन इसके ऊपरांत अंधकार, प्रकाश, प्रभा, छाया ये सभी द्रव्य रूपमें हैं। और वे पुद्गल द्रव्य स्वरूप ही है। अर्थात् सभी पदार्थ है / और उन सबमेंसे लहरें या किरणे निकलती ही हैं। भाषा यह एक अद्भुत चीज है। समग्र जगतका व्यवहार इससे ही चलता है / वों के न होने पर शब्द नहीं बनते, शब्द न हो तो वाणी नहीं बनती, अच्छा या बुरा करनेमें प्रायः भाषा ही निमित्त बनती है / अतः प्राप्त हुई बोलनेकी शक्तिका विना कारण दुर्व्यय न करें, अच्छा बोलिए, सत्य बोलिए, पथ्य बोलिए, परिमित बोलिए, जूठे मुँहसे न बोलिए। वाणी तो वशीकरण है / अतः स्वपरके हितमें उसका उपयोग करें। भाषा पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन पाठय ग्रन्थमें इतना पर्याप्त हैं। .अंधकार, प्रभा किस तरह पुद्गल रूप है ! उसके विशेष विवेचनको यहाँ स्थान नहीं है / 543. शास्त्रीय शब्दोंमें-अरबोवों नहीं लेकिन असंख्यातवाँ भाग / 544. कुछ लोग अंधकारके लिए तेजका अभाव उसका नाम अंधकार ऐसा कहते हैं / कोई उसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श है ऐसा मानते भी नहीं हैं। लेकिन जैन दर्शनने उसे स्वतंत्र पुद्गल द्रव्यपदार्थ माना है / ऑलीवर लोज नामके वैज्ञानिकने प्रयोगोंके द्वारा निश्चित किया था कि अंधकार द्रव्य-चीज है / अगर इन प्रयोगोंमें बड़े पैमानेमें सफलता मिलेगी, तो दिनमें भी मैं किसी भी शहरको अंधकारमय कर दूंगा। इस परसे जैन मान्यताएँ सर्वश कथित ही हैं इसकी इससे अधिक प्रतीति क्या हो सकती है?
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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