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________________ वैमानिकदेवकी जघन्य आयुष्यस्थिति ] गाथा 9-10 [63 इस प्रकार सौधर्म देवलोकसे लेकर पांचों अनुत्तर विमानों तकके देवोंकी अर्थात् वैमानिक निकायके देवों की ऊपर बताये अनुसार उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कही गई। [8-83] अवतरण-पूर्व गाथामें वैमानिक देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति कही गई / अब दो गाथाओंसे उन्हीं वैमानिक देवोंकी जघन्य स्थिति कही जाती है सोहम्मे ईसाणे, जहन्न-ठिइ पलियमहिअं च // 9 // दो-साहिसत्तदस चउ-दस, सत्तर अयराई जा सहस्सारो / तत्परओ इकिकं, अहियं जाऽणुत्तरचउक्के // 10 // इगतीस सागराइं, सबढे पुण जहन्न-ठिइ नत्थि / / 103 // गाथार्थ-सौधर्म तथा ईशान देवलोकमें अनुक्रमसे पल्योपम और साधिक पल्योपमप्रमाण जघन्यस्थिति है / तत्पश्चात् सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र तथा सहस्रार देवलोकमें अनुक्रमसे दो सागरोपम, साधिक दो सागरोपम, सात सागरोपम, दस सागरोपम, चौदह सागरोपम तथा सत्रह सागरोपम-प्रमाण जघन्यस्थिति कही है। तत्पश्चात् आनतादि चार देवलोकोंमें, नौ ग्रैवेयकोंमें तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित इन चार अनुत्तर विमानों में अनुक्रमसे एक-एक सागरोपम अधिक जघन्यस्थिति है। इस प्रकार समग्र अनुत्तर देवलोकके चारों विमानोंमें इकतीस सागरोपमप्रमाण जघन्यस्थिति जानें। सर्वार्थसिद्धमें जघन्यस्थिति नहीं है // 9-10-103 विशेषार्थ वैमानिक निकायके पहले सौधर्म देवलोकके४७ देवताओंकी जघन्य आयुष्य स्थिति एक पल्योपमकी है, यह स्थिति सौधर्म देवलोकके तेरहों प्रतरों में निवास करनेवाले देवोंकी जानें। ईशान देवलोकके देवताओंकी जघन्य आयुष्य स्थिति एक पल्योपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक होता है / यह जघन्य स्थिति सौधर्म देवलोककी . . . 96. सौधर्म-ईशानमें जघन्यस्थिति पल्योपम तथा अधिक पल्योपम मात्र कही है और सनत्कुमारमें तुरन्त ही दो सागरोपम जैसी बड़े प्रमाणवाली जघन्यस्थिति कही, उससे जरा आश्चर्य होगा, किन्तु ज्ञानीका कथन यथातथ्य होता है / 97. जघन्यस्थिति सर्वत्र समान है, लेकिन उत्कृष्टस्थितिमें अन्तर है। सौधर्म इन्द्रका निवास अंतिम (तेरहवें ) प्रतरमें ही होता है, इससे पूर्व समुच्चयरूपमें सौधर्मादि प्रत्येक देवलोकाश्रयी जो उत्कृष्टस्थिति कही है वह अंतिम प्रतरमें रहनेवाले इन्द्र तथा अन्य सामानिक आदि देवोंकी भी उतनी ही समझें / मात्र उनको आज्ञा-ऐश्वर्यादि भाव नहीं होता है। पूर्व कही गई सामुदायिक उत्कृष्टस्थिति हरएक देवलोकके अंतिम प्रतरकी समझे, उसी देवलोकके अन्यान्य प्रतरोंमें तो अन्तरवाली होती है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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