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________________ 64 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 9-10 तरह ईशान देवलोकके "सर्व प्रतरमें समझ लें। तीसरे सनत्कुमार देवलोकमें जघन्य आयुष्य दो सागरोपमका, चौथे माहेन्द्र में सर्व प्रतरमें जघन्य आयुष्य दो सागरोपमसे कुछ अधिक, पांचवें ब्रह्म देवलोकमें जघन्यआयुष्य सात सागरोपमका, छठे लांतक देवलोकमें जघन्य आयुष्य दस सागरोपमका, सातवें शुक्र देवलोकमें जघन्य आयुष्य चौदह सागरोपम, आठवें सहस्रार देवलोकमें जघन्य आयुष्य सत्रह सागरोपम, नवें आनत देवलोकमें जघन्य आयुष्य अठारह सागरोपम, दसवें प्राणत देवलोकमें जघन्य आयष्य उन्नीस सागरोपम, ग्यारहवें आरण देवलोकमें जघन्य आयुष्य बीस सागरोपम, बारहवें अच्युत देवलोकमें जघन्य आयुष्य इक्कीस सागरोपम, तत्पश्चात् नौवें अवेयकमें एक-एक सागरोपमकी संख्या बढ़ाते जाना, अर्थात् पहले अवेयकमें बाइस सागरोपम और नौवें आदित्य वेयकमें तीस सागरोपमकी जघन्य स्थिति आ जाएगी। . ___ तत्पश्चात् पांच अनुत्तर विमानोंकी जघन्य स्थितिका प्रमाण कहते हैं उनमें अनुत्तरसे क्या तात्पर्य है ? तो जिसके उत्तरमें अब किसी भी प्रकारका विशिष्ट पौद्गलिक सुख नहीं है अर्थात् दस देवलोकके आगे किसी भी प्रकारका पौद्गलिक सुखका अधिक आस्वाद वर्तमान नहीं है / अतः वह देवलोक अनुत्तर देवलोकके नामसे पहचाना जाता है। उस ४४अनुत्तर देवलोकके विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित इन चारों विमानोंके विषयमें जघन्य आयुष्यस्थिति एकतीस सागरोपमकी है / परन्तु पाँचवें सर्वार्थसिद्ध नामके विमानके विषयमें १०°जघन्य आयुष्यस्थिति नहीं है। यह उस स्थानके लिये विशिष्ट प्रभावसूचक है। ___ 98. अन्य आचार्य हरएक प्रतरकी जघन्यस्थिति अन्य प्रकारसे भी बताते हैं जो १५-१६वीं गाथामें कही जायेगी / चालू गाथामें जो जघन्यस्थिति कही है वह उस देवलोकके समग्र प्रतराश्रयी समुच्चयने कही है। _____ 99. अथवा अनुत्तर तात्पर्य है-'अविद्यमानमुत्तरद् विमानादि येषां तेऽनुत्तराः' अर्थात् विद्यमान नहीं है अन्य विमानादि जिसके उत्तरमें वह अनुत्तर / अथवा बाह्यसुखकी अपेक्षामें जिससे श्रेष्ठ स्थान चौदह राजलोकमें अन्य नहीं है। चौदह राजलोकमें संसारी जीवकी अपेक्षासे सर्वोत्तम आयुष्यको धारण करनेवाला स्थान वही है और सबसे ऊँचा देवलोक भी वही है अतः उसे अनुत्तर कहा जाता है / 100. प्र०—तत्त्वार्थसूत्रके अ० 4. सू० 42 का भाष्य सर्वार्थसिद्धके देवोंकी जघन्यस्थिति 32 सागरोपमकी और उत्कृष्ट 33 सागरोपमकी है ऐसा दोनों प्रकारसे कहते हैं। किन्तु यह बात सिद्धान्तकारके अनुरूप नहीं है। अतः टीकाकार श्री सिद्धर्षिीने भी वहाँ प्रश्न उठाया है। किन्तु सत्य क्या है ? यह तो ज्ञानिगम्य है / परन्तु सिद्धान्तकार तो सर्वार्थसिद्धकी अजघन्योत्कृष्ट 33 सागरोपमकी एक ही स्थिति कहते हैं / प्र०—'सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं भंते / केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? उ०--गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोस तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता // (पन्नवणा सूत्र० पद 4. सू० 102.)
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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