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________________ वैमानिक देवकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति ] गाथा 8 [61 परम कारुणिक सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवन्तोंके कल्याणकादि प्रसंगों में उन्हें आनेकी जरूरत नहीं। केवल जो सम्यग्दृष्टि देव हों वे शय्यामें सोते सोते ही सिर्फ दोनों हाथ ऊँचे करके नमस्कार करते हैं। अनुत्तर देवोंको तो हाथ भी ऊँचे करनेकी आवश्यकता नहीं। जन्मांतरमें की हुई चारित्रकी उत्तम कक्षाकी आराधनाके प्रतापसे ही ऐसी उत्तम कक्षाकी स्थिति प्राप्त किये हुए हैं, कि जहाँ अपने ऊपर किसीका स्वामित्व ही नहीं। वैसे स्वयं भी किसीके स्वामी नहीं हैं। साथ ही क्लेश, झगड़ा, अशांति भी नहीं हैं। तमाम देव समान, सर्व स्वतंत्र रूपमें होनेसे वहाँ व्यवस्थाकी जरूरत नहीं होती। ___ अनुत्तरवासी देव एक करवटसे शय्यामें लेटे हुए द्रव्य-गुण-पर्यायके चिंतनकी गंभीर विचारणामें समय व्यतीत करते हैं। उनमें (सर्वार्थसिद्धके ) 33 सागरोपमके आयुष्यवाले देव साढे सोलह सागरोपम तक एक ही करवटसे सोये रहते हैं / तत्पश्चात् एक बार करवट बदलकर शेष आधा आयुष्य पूर्ण करते हैं। ऐसी तो महान् पुण्यके प्रतापसे अति सुखरूप आयुष्यको भोगनेकी महत्ता प्राप्त की है, उसमें कारणरूप केवल उत्तम कक्षाके चारित्रकी आराधना है। ___ अब उन दोनों प्रकारके वैमानिक निकाय देवोंकी प्रथम उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति कहनी है। [यहाँ जो आयुष्य कहा जाता है वह हरएक देवलोकके अंतिम प्रतरमें निवास करनेवाले देवोंका जाने और शेष प्रतरोंमें बसनेवालों की स्थिति तथा उन प्रतरोंका स्वरूप आगे कहा जाएगा / ] वैमानिक निकायके देवोंकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति . प्रथम सौधर्म देवलोकमें सामान्यसे ( उत्कृष्टमें उत्कृष्ट ) सर्वोत्कृष्ट दो सागरोपमकी आयुष्य स्थिति है। यह जो स्थिति कही गई वह समुच्चयसे कही है और इन दो सागरोपमकी स्थिति उस सौधर्म देवलोकके अंतिम ( तेरहवें ) प्रतरकी जानें / दूसरे ईशान देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति समुच्चयसे दो सागरोपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक जानें / यह स्थिति भी सौधर्म देवलोककी तरह ईशान देवलोकके अंतिम प्रतरमें होती है। इस तरह तीसरे सनत्कुमार देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति सात सागरोपम, चौथे माहेन्द्र देवलोकमें सात सागरोपम और एक पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक, पाँचवें ब्रह्म देवलोकके देवताका उत्कृष्ट आयुष्य दस सागरोपम, छठे लांतक देवलोकमें चौदह सागरोपम, सातवें शुक्र देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्य सत्रह सागरोपम, आठवें सहस्रार देवलोकमें अठारह सागरोपम, नौवें आनत देवलोकमें उन्नीस
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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