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________________ 60 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा 8 आचारोंसे 'अतीत' अर्थात् रहित यह 83' कल्पातीत' कहा जाय / अर्थात् जहाँसे परस्पर स्वामि-सेवकभाव चला गया है, वहाँ परस्पर छोटे-बड़ेकी मर्यादा होती नहीं है, जिनको जिनेश्वरोंके कल्याणकादि प्रसंगों में आनेकी मर्यादा निभानी नहीं होती, वे 'कल्पातीत' कहलाते है / यह कल्पातीतत्त्व नव ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरमें है अर्थात् सभीका समानत्त्व [अहमिंद्रत्व ] है। देवलोकमें एक व्यवस्था-व्यवहारवाले देव और दूसरे व्यवस्था-हीन देव होते हैं। इससे यह निश्चित हुआ कि वैमानिक निकायमें दो प्रकारके देव हैं। जहाँ अशांति, क्लेश या परस्पर संघर्षण आदि होनेकी संभावना हो वहाँ सुलह-शांतिकी स्थापनाके लिए सर्वविध व्यवस्थाकी आवश्यकता उपस्थित होती है और वहाँ वैसी व्यवस्था होती ही है। __ अतः ( भवनपतिसे लेकर ) वैमानिक निकायमें बारहों देवलोकके देवोंको परस्पर मिलने जुलनेके साथ ही अन्यत्र गमनागमन करनेके प्रसंग बने रहते हैं। साथ ही देवांगनाओंके साथके स्नेहसंबंध भी रहते हैं और उनके आकर्षण भी रहते हैं। इस तरह जहाँ परस्पर समागम हों वहाँ रागद्वेष-विषयक संघर्षण उपस्थित होते हैं और संघर्षणमेंसे ही संक्लेशों की चकमक झरती है और युद्धोंके वरनगोड भी गड़गड़ा उठते हैं। ऐसा बनने न पाये, इसलिए सारी व्यवस्था होनी चाहिए, अतः मनुष्यलोकके राजतंत्रकी तरह वहाँ भी दस प्रकारको व्यवस्था होनेसे वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं। 'कल्प' अर्थात् 'आचार' और 'उपपन्न' अर्थात् ‘युक्त, आचारसहित' वह / बारह देवलोकोंसे आगे वैमानिकनिकायके ही दूसरे नव अवेयक और अनुत्तर देवलोकोंमें यह व्यवस्था नहीं है, क्योंकि उन देवोंको अपना समग्र जीवन अपने ही विमानोंमें बिताना होता है। विमानमें से कभी बाहर निकलना होता ही नहीं है। इतना ही नहीं, परलोकसे आकर जिस शय्यामें उत्पन्न हुए थे तब सोये हुए ही हों ऐसे आकारमें उत्पन्न हुए थे, तत्पश्चात् कभी उठना भी नहीं होता ऐसे ये महाभागी होते हैं और उन्हें वैसी जरूरत भी नहीं होती। वहाँ सर्व क्लेश और सर्वोपाधिके मूलरूप न तो देवांगनाएँ और न उनके साथ रहनेवाले स्नेहसम्बन्ध तथा उन्हें उठना ही नहीं होता, अतः नौकर, चाकर या सलाहकार जैसे देव भी नहीं होते। ___अतः सभी देव अपनी-अपनी शय्यामें ही जीवन व्यतीत करते हैं। अतः देवियाँ तो हैं ही नहीं और देवोंका परस्पर मिलन भी नहीं है इसलिए किसीका समागम भी नहीं है, अतः संघर्ष नहीं है और इसलिए व्यवस्थाकी जरूरत नहीं रहती है। 93. इसीलिए बारह देवलोकोंको कल्प [ सौधर्म ‘कल्प' आदि ] की तरह संबोधित. कर सकते हैं लेकिन ग्रेवेयक तथा अनुत्तरको कल्प विशेषण नहीं लगाते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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