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________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जातीं जो जो वस्तुएँ मापी जाएँ वे आत्मांगुल प्रमाणवाली गिनी जाएँ क्योंकि उस समय उचित मानवाले वे गिने जाते हैं / इस तरह श्री वीर भगवानके समयमें उन कालोचित परमात्मा श्री महावीरदेवके आत्मांगुलसे वह वस्तु मापी जाएँ / यह आत्मांगुल उस उस कालके पुरुषोंके आत्मीय अंगुलाधीन होनेसे, कालादि भेदसे अनवस्थित होनेसे यह माप अनियत है। आत्मांगुलसे क्या क्या वस्तु नापी जाए ? आत्मांगुलसे वस्तु नापनेका कहा वह वस्तु तीन प्रकारकी है / (1) खात, (2) उच्छ्रित और (3) उभय प्रकारकी। इनमें खात= अर्थात् खोदकर तैयार किये कुएँ, कंदरा, तालाब आदि / उच्छित अर्थात् ऊँचाईवाले पदार्थ घर-प्रासादादि धवलगृह / उभय अर्थात् खात और उच्छित दोनों प्रकारकी वस्तुएँ जिसमें हों वे, वैसी वस्तुमें कंदरा सहितके प्रासाद, गृहो समझना / __अधिक स्पष्टतासे कहें तो नगरों तथा जंगलके सर्वप्रकारके जलाशय, कुएँ, भाँति भाँति की बावडियाँ, सरोवर, तालाब, नदियाँ, समुद्र, द्रह, गुफाएँ, अशाश्वत पर्वत, खदानों, वृक्षो, उद्यान, उपवन, नगरमार्ग, राजभवन, लोकगृह, दुकाने, वाहन, पशु, शरीरादिकके मानो इत्यादि वस्तुएँ उस उस कालमें श्रेष्ठ माने जाते पुरुषके अंगुलसे मापा जाए उसका माप निश्चित होता है, ऐसा लगता है। __लेकिन इतना विवेक समझना ठीक लगता है कि, आत्मांगुलसे नापी जाती वस्तुएँ अशाश्वत और प्रमाणांगुलसे मापी जाती वस्तुएँ शाश्वत समझना / ऊपर बताई गई वस्तुएँ आत्मांगुलसे इसलिए नापनेकी है कि, ये वस्तुएँ उस उस कालके लोगोंके शरीरानुसारी मापके साथ मेल रखती ही होनी चाहिए / यदि ऐसा न करें तो उत्सेधांगुल या प्रमाणांगुलकी गिनतीसे माप दिखाए जाएँ तो गोटाले या भ्रम उपस्थित हों और व्यवहार चलना मुश्किल हो जाए। उदाहरण स्वरूप श्री ऋषभदेव भगवानके अस्तित्व कालमें उत्सेधांगुलसे 200 हाथ गहरा कुआँ हो तो क्या उस कुएँको 200 हाथका यह कुआँ है' ऐसी प्रसिद्धि जरूरी ___456. जिस कालमें जो पुरुष अपने अंगुलप्रमाणसे 108 अंगुल ऊँचे हों उनका अंगुल ही आत्मांगुल कहा जाए / परंतु इससे न्यूनाधिक प्रमाणवाले पुरुषोंका जो अंगुल है उसे आत्मांगुल नहीं लेकिन आत्मांगुलभास कहा जाए, ऐसा प्रवचनसारोद्धार वृत्ति कहती है / और प्रज्ञापनावृत्तिकार कहते हैं कि जिस कालमें जो मनुष्य हों उनके अंगुलका जो प्रमाण हो उसे यहाँ आत्मांगुल समझना / इस तरह दोनों के बीच तफावत-फर्क रहता है, क्योंकि प्रवचनसारोद्धार वृत्तिकार 108 अंगुलकी ऊँचाईका नियमन करता है जब कि प्रज्ञापना वृत्तिकार वैसा नियमन नहीं करते / अतः वे इस अंगुलको अनियत गिनाते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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