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________________ * 148 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . संख्यातावर्षायुषी गर्भज तिर्यंचमें और पर्याप्ता ४७वादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिमें जा सकते है / उससे आगेके सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार तकके देव तथा सर्व नारक पर्याप्ता संख्यवर्षायुषी गर्भज तिर्यंचमें जाते हैं, उससे ऊपरके कल्पके देव मरकर तिर्यंचमें नहीं आते / [3051] // तिर्यंचोंका आठवाँ आगतिद्वार / / अवतरण-अब तिर्यच स्वभवसे मरकर कहाँ जाते हैं ! वह आगतिद्वार तथा किस लब्धि-शक्तिको प्राप्त करे ? यह कहते हैं। संखपणिदिअतिरिआ, मरिउं चउसु वि गइसु जति // 306 // . थावर विगला नियमा, संखाउअ तिरिनरेसु गच्छंति। . विगला लभेज्ज विरई, सम्मपि न तेउवाउचुआ // 307 // गाथार्थ—संख्यातायुषी पंचेन्द्रियतिथंच जीव मरकर चारों गतिमें जाते हैं। स्थावरविकलेन्द्रिय मरकर निश्चित रूपसे संख्यातवर्षायुषी तिथंच तथा मनुष्यमें जाते हैं / वहाँ विकलेन्द्रिय [सर्व] विरतिको प्राप्त करते और तेउ तथा वायुकायके जीव मरकर सम्यक्त्वको भी नहीं पाते / // 306-307 // विशेषार्थ-संख्यातावर्षायुषी पंचेन्द्रियतिथंच जीव मरकर एक मोक्षको छोड़कर शेष 44 देव-"नरक-तिर्यच-मनुष्य इन चारों गतिमें जाते हैं / स्थावरोंसे सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय-दोइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय तथा चउरिन्द्रिय, स्वभावसे च्युत होकर अनन्तरभवमें निश्चित एकेन्द्रियसे लेकर संख्यात वर्षायुषी तिर्यचपंचेन्द्रियमें तथा मनुष्यमें ही जाता है, परंतु असंख्य वर्षायुषी तियेच मनुष्यों तथा देव नारकीमें नहीं जाते और वहाँसे आते भी नहीं / 447. देव, नारकी और असंख्य आयुषी तिर्यच-मनुष्य, सूक्ष्ममें गमन नहीं करते वैसे वहाँसे आते भी नहीं हैं / 448. संग्रहणी ग्रन्थकारके टीकाकारने-अन्यभवसे विवक्षित भवमें आवे उसे गति कही तथा विवक्षित भवसे अन्यगतिमें जाए उसे आगति कही है / यहाँ विवक्षा भेद प्रमाण है / अन्यथा अन्य स्थल पर विपरीत रीतसे अर्थात् विवक्षित भवसे अन्यत्र जाए उसे गति तथा अन्यभवसे उसमें-विवक्षित भवमें आवे उसे आगति कही है / 449. संमू० पंचेन्द्रिय तिर्यच नरकमें जाए तो पहले नरक तक ही / 450. संख्य वर्षायुषी देवलोकमें यावत् आठवें कल्प तक जाता है, तथा असंख्य आयुषी गर्भज तिर्यच स्वभव तुल्य अथवा उससे न्यून स्थितिवाला देवत्व प्राप्त करे लेकिन अधिक स्थितिवाला नहीं / साथ ही असंख्य आयुषी खेचर तथा अन्तर्वीपोत्पन्न पंचेन्द्रिय तिर्यंच भवनपति-व्यन्तर तक ही जाता हैं क्योंकि इससे आगे तो पल्योपमके असंख्यातवें भागवाली स्थिति नहीं है, इससे असंख्यायुषी ईशानसे आगे नहीं जाते / जो बात देवद्वारमें आई गाथा परसे समझमें आ सकती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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